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स्वस्मात्-अपने से, स्वस्याविनश्वरे स्वस्मिन् अपने अविनाशी स्वरूप में स्थिर: स्थिरतापूर्वक, ध्यात्वा ध्यान करके, एनं इस, आनंद आनन्दमय, अमृतं पदं अविनाशी पद को, लभस्व-प्राप्त करो।
हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका)-प्राप्त करोगे, क्या?-स्थान को, किस प्रकार के स्थान को? मोक्षरूपी स्थान को, और फिर कैसा है वह पद? अपने आत्मा से उत्पन्न अनन्त सुखस्वरूपी है। क्या करके? ध्यान करके, कैसे? ऊपर कहे गये कथनानुसार, कौन? तुम, किसका ध्यान करके? तुम अपने आपको (ध्याकर), किससे?-अपने से, कैसे? अविचल होकर, किसके लिए?-तुम्हें फल प्राप्ति हो-इसलिए. कहाँ से फल प्राप्ति हो? तुम्हारी अपनी आत्मा से, कहाँ रहकर ध्यान करने से? तुम्हारे अविनाशी स्वरूप में रहकर (ध्यान करने से मोक्षरूपी फल प्राप्ति होगी)।
हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)--शाश्वत आत्मा में जैसे स्थित हो सके, वैसे स्थिर होकर अपने संबंधि आत्मा को आत्मा के पास से अपने स्वरूप की प्राप्ति के लिए आत्मा के द्वारा आत्मा अर्थात् तुम-इस प्रकार इस अभेद षट्कारकरूप से ध्यान करके अनन्तसुखस्वरूप, मरण आदि के दुःखों से रहित मोक्षरूपी पद को प्राप्त करो जाओ। पर, निरपेक्ष होकर अपने से ही निज सिद्धसमान आत्मस्वरूप की प्राप्ति संभव होने से पर भाव को छोड़कर, स्वरूप भावना में ही प्रयत्नरत सदा होना चाहिए-ऐसा अभिप्राय है।
विशेषार्थ-'सब कुछ आत्मा में ही मिल जाने वाला है, तो किसी साधनरूप, कर्मरूप या अपादान अधिकरण आदि रूप अन्य पदार्थ की कोई भूमिका इस कार्य की निष्पत्ति में होगी अथवा नहीं?' - इस जिज्ञासा का समाधान 'अभिन्न षटकारक' की प्रक्रिया को बताकर इस पद्य में दिया गया है। छहों कारकों को आत्मा में घटित करने के बाद क्रिया' के स्थान पर सम्बन्धकृदन्तीय पद 'ध्यात्वा' (ध्यान करके) का प्रयोग कर यह संकेत दिया गया है कि 'स्वरूपसम्बोधन-पञ्चविंशतिः' नामक इस ग्रन्थ का प्रतिपाद्य विषय पूर्णतया समझ लेने के बाद आत्मध्यान करने के अतिरिक्त अन्य कोई रास्ता नहीं रह जाता है। और आत्मध्यान करने पर अनन्त आनन्दमय त्रिकाली ध्रुब आत्मतत्त्व की अविचल प्राप्ति होगी तथा पर्यायगतरूप से अनन्तसुखरूप पर्याय प्रकट होगी, जो कि अनन्त सुखस्वरूपत; अविनाशी होगी - अमृत होगी।
प्रमुख अध्यात्मवेत्ता आचार्य अमृतचन्द्र ने आत्मा में अभिन्न षट्कारक-व्यवस्था
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