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चुक्त, मा भू:=मत होओ, (क्योंकि) यावत् जब तक, ते तुम्हारे (अन्तस् में), तृष्णाप्रभूति:-तृष्णा की भावना उत्पन्न होती है, तावत्-तब तक, (तुम), मोक्ष मोक्ष को, न यास्यसि-नहीं जा सकोगे।
हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका)-हे आत्मन्। मत होओ, कौन (मत होओ)? तुम किस तरह के न बनो? इन बाहर विषयों में अति आकांक्षा से यक्त मत बनो, किस तरह से? स्वरूप के आलम्बन के प्रारंभिक क्षण से ही, कहाँ पर तृष्णा नहीं रहनी चाहिए? तुम्हारे आत्मा में, किस कारण से?-नहीं पा सकोगे समस्त कर्मों से मुक्ति को (-इस कारण से)। कैसे (नहीं पा सकोगे)? तब तक, जब तक क्या? जब तक कि आकांक्षा की अधिकता है, किसको?-तुमको ।
हिन्दी अनुवाद (संस्कृत)-उस तरह होने पर) अरे जीव! आप अपने स्वरूप में अतीव आकांक्षा से युक्त मत होओ। क्यों?-ऐसा (पूछने पर कहते हैं) कि जब तक तुम्हारे (मन में) आकांक्षा की प्रादुर्भूति (होती रहेगी) तब तक (तुम) मोक्ष में नहीं जा सकोगे। अपनी आत्मा के विषय में भी तीव्र आकांक्षा यदि (रहती है तो तब तक) लोभ कापाय नष्ट नहीं हो सकती है। और लोभकषाय के विनाश के बिना अपने स्वरूप की प्राप्ति नहीं होती है। इसलिए तीव्रतष्णा की भावना मोक्ष की प्रतिबन्धक (बाधक) होने से त्यागने योग्य है-ऐसा भाव है।
विशेषार्थ-पद्यपि ग्रन्धकर्ता ने विगत दो पद्यों में आत्मतत्त्व की भावना एवं उसका आश्रय लेने की प्रबल प्रेरणा दी है, किन्तु यह प्रेरणा पुरूषार्थी बनने की दृष्टि से दी गयी थी; उतावला बनने के लिए नहीं। यदि कोई व्यक्ति अधिक उतावला होकर बार-बार यह पूछे कि "इतना सब कुछ तो कर लिया. किन्तु आत्मानुभूति नहीं हुई; कब तक हो जायेगी?" - तो ऐसी तृष्णा से आत्मानुभूति होने वाली नहीं है। क्योंकि यह तृष्णा तो राग की ही तीव्रपरिणति है तथा आत्मा वीतरागतत्त्व है; अत: उसका ग्रहण/अनुभव वीतराग परिणामों में ही संभव है, तीव्रराग से कदापि संभव नहीं है। फिर भी वीतराग तत्त्व की प्राप्ति जो तीव्ररागरूप तृष्णा के परिणामों से करना चाहते हैं, उनके प्रति आचार्यदेव ने खेदसूचक हन्त' पद का प्रयोग किया है।
साथ ही उन्होंने स्पष्ट सूचना दी है कि जब तक तृष्णाभाव रहेगा, तब तक जीव मोक्ष की प्राप्ति नहीं कर सकता है। आखिर 'उच्च लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पवित्र साधनों का उपयोग अनिवार्यरूप से करना ही होगा'; अन्यथा इष्ट सिद्धि कदापि नहीं हो सकती है।