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किसे?-वस्तु को, कैसे?-इस प्रकार, ऐसे कैसे? मैं और मुझसे भिन्न परवस्तु स्वरूप से पाओगे। किसको?-अतीन्द्रिय सुख को, कहाँ?-परममाध्यस्थ भावना की चरमोत्कृष्ट स्थिति में।
हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-तुम और अन्य-इस तरह से दो प्रकार के वस्तुस्वरूप को उस-उस वस्तु के स्वरूप के अनुसार ही इस पूर्वोक्त प्रकार से भावना करो। सम्पूर्ण वस्तुओं में परम उदासीनता भावना की उत्कृष्टतमपर्याय पर्यन्त (होने पर) मोक्ष को प्राप्त करोगे। यथावस्थित वस्तु उसी-उसी स्वरूप से ही निश्चित करके परम उदासीन भावना करने पर स्वरूप की प्राप्ति होती हैऐसा भाव है।
विशेषार्थ:- मोक्ष के विषय में भी तृष्णा न हो, तथा मोक्ष-प्राप्ति के लिए तत्पर आत्मार्थी जीव तत्त्व-अभ्यास में लगा रहे - ऐसा विगत कुछ पद्यों का निष्कर्ष है। यहाँ प्रश्न होता है कि 'वह कैसे तत्वाभ्यास करे कि तृष्णा भी न हो और तत्त्वनिर्णय भी हो सके?' –इसका समाधान इस पद्य में दिया गया है।
आत्मा का और परपदार्थों का ज्ञान एवं चिन्तन उस-उस वस्तु का जैसा स्वरूप है, तदनुसार करना चाहिए, न कि अपने पूर्वाग्रहों, विपरीताभिनिवेशों एवं राग-द्वेष की भावनाओं से प्रेरित हो कर 'अपना-पराया' या 'भला-बुरा' के रूप में। इसको परममाध्यस्थ भावना' या 'उपेक्षा भावना' संज्ञा ग्रन्धकार ने दी है। इस उपेक्षा-भावना का चरम उत्कर्ष होने पर ही जीव मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। जब तक वह उत्कर्ष प्राप्त नहीं हो पाता है, तब तक साधक को राग-द्वेष-मोह के मिथ्या-संस्कारों से बचकर वस्तुगत रूप से अपनी दृष्टि एवं चिन्तनशैली का निर्माण करना होगा। तभी परमपुरूषार्थ मोक्ष की सिद्धि संभव हो सकेगी।
विगत कुछ पद्यों एवं उनकी टीकाओं में स्पष्ट है कि माध्यस्थ भावना, उदासीनता एवं उपेक्षा भावना-इन तीनों को प्राय: पर्यायवाचीरूप में कहा गया है। वस्तुत: ये 'पर' के प्रति उपेक्षा एवं आत्मा के प्रति 'भावना'-ऐसी विशिष्ट त्यागोपादान रूप हैं। मुनि रामसिंह ने लिखा है कि आत्मा की भावना करने से पाप क्षणभर में नष्ट हो जाते हैं।
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दोहापाडुड, 750
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