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चाहिए"; कोई सामान्यकथन नहीं है। इसका अर्थ विस्तार बहुत व्यापक एवं गम्भीर है।
मोक्ष-विषयक आकांक्षा/चिन्ता के त्याग के लिए, पय: सभी अध्यात्मवादियों ने उपदेश दिया है। आचार्य योगीन्द्रदेव लिखते हैं-"है योगी ! अन्य पदार्थों की चिन्ता की बात तो दूर रही, मोक्ष की भी चिन्ता मत करो; क्योंकि चिन्ता करने से मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती है।” आचार्य पद्मनंदि लिखते हैं -"चूंकि मोक्ष की इच्छा भी मोह के ही कारण से होती है और मोह मोक्षप्राप्ति में बाधकतत्त्व है। अत: शान्तभावी मुमुक्षजन किसी भी पदार्थ की इच्छा नहीं करते हैं।
1. पद्मनन्दिपञ्चविंशति:, 1155 ।
नाटक समयसार, गुणस्थान अधिकार, पद्य 991 3. धवला, पुस्तक 13, वग्गणा 52 | 4. भावपाहुड, गाधा 121 की पं० जपचन्द छाबड़ाकृत वचनिका। 5. छक्खंडागम, सं० 2/2/442 ।
नियमसार, गाथा 112 की टीका। 7. परमात्मप्रकाश, 2/188 | 8. पद्मनंदि पंचविंशतिः।
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