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उत्थानिका (कन्नड़ टीका)-'स्व-परवस्तुगळं स्व-परस्वरूपदिदरिदु परममध्यस्थभावनेयं पेर्चिसे अतीन्द्रिय सुखमनेयिदुवे-एम्बुदं पेळल्वेडि बन्दुत्तरश्लोकं
उत्थानिका (संस्कृत टीका)-दुर्भाव विसृज्य स्वपरवस्तु यथावस्थिति तद्वत् नितव्यम् । मध्यस्थावस्था तभ्यमानायां सत्यां तत्फलं दर्शयन्नाह--
स्वं परञ्चेति वस्त्वित्यं वस्तुरूपेण चिन्तय । उपेक्षाभावनोत्कर्ष-पर्यंते शिवमाप्नुहि । 1 22 ।। कन्नड़ टीका-(चिन्तय) अरि (केन रूपेण) आव स्वरूपदिद? (वस्तुरूपेण) वस्तुरूपदिदं, (किम्) एनं? (वस्तु) वस्तुवं, (कथम् ) एन्तु? (इत्यम्) इन्तु (इत्थं कथम्) इंतेम्बुदेन्तु? (स्व-पर चेति ) तानुं पेरतेम्ब स्वरूपदिदं (आप्नुहि) पेय्दुवे । (कम्) एन? (शिवम् ) अतीन्द्रियसुखमं इन्द्रियातीतसुखक्के, (क्व) एल्लि? (उपेक्षाभावनोत्कर्षपर्यन्ते) परममाध्यस्थ भावनेय पेर्चुगे।
संस्कृत टीका-(स्वम्) त्वं (परञ्च) अन्यञ्च-इति द्विप्रकारं (वस्तु) वस्तुस्वरूपं (वस्तुरूपेण) तत्तद्वस्तुस्वरूपेणैव (इत्थम्) अनेनोक्तप्रकारेण (चिन्तय) भावय। (उपेक्षाभावनोत्कर्षपर्यन्ते) समस्तवस्तुपु परमौदासीनभावनोत्कर्षपर्यायपर्यन्ते (शिव) मोक्षं (आप्नुहि) प्राप्नुहि। यथावस्थितवस्तु तत्तत्स्वरूपेणैव निश्चित्य परमौदासीनभावनां कृते स्वरूपप्राप्ति: स्यादिति भावः ।
उत्यानिका (कन्नड़)-'स्वकीय एवं परकीय वस्तुओं को (स्व को) स्वस्वरूप और (पर को) परस्वरूप-ऐसा जानकार स्ववस्तु में परमोत्कृष्ट भावना और परवस्तुओं में माध्मस्थ भावना को बढ़ाने से अतीन्द्रिय सुख (मोक्ष सुख) को प्राप्त कर सकोगे'-इस बात के स्पष्टीकरण के लिए यह श्लोक प्रस्तुत है।
उत्थानिका (संस्कृत)-दुर्भावों को छोड़कर अपनी और परायी वस्तु की जिसकी जैसी स्थिति है-उसी तरह निर्णय करना चाहिए। मध्यस्थ अवस्था प्राप्तव्य होने पर उसका फल दिखाते हुए कहते हैं।
खण्डान्वय-स्वं परञ्चेति अपनी और परायी-ऐसी (समस्त) वस्तु-वस्तुओं को, वस्तुरूपेण (जो वस्तु जैसी है, उसी) वस्तुरूप से, चिन्तय-विचार करो (और फिर) इत्थम्=इस प्रकार (विचार होने पर), उपेक्षाभावनोत्कर्षपर्यन्ते उपेक्षा रूप माध्यस्थ भावना का चरम उत्कर्ष प्राप्त होने पर, शिवं-मोक्ष को, प्राप्नुहि–प्राप्त करो (प्राप्त कर सकोगे-ऐसा भाव है)।
हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका)-समझो, किस रूप से? वस्तुरूप से,
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