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यत्न-पुरुषार्थ-प्रयत्न, किन्न करिष्यसि क्यों नहीं करते हो?
हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका)-सहजता से प्राप्त की जा सकती है, क्या करने से?-यदि इस भावना का चिन्तन करोगे, तो। तो क्या? उस परम उपेक्षारूप भावना को, किस कारण से? अपने आत्मा में ही तल्लीन रहने के कारण से। हे सज्जन पुरूष क्यों नहीं करोगे?-किसको? प्रयत्न को, कहाँ?-उत्कृष्ट भावनारूप फल में, किस प्रकार के फल में?-अपनी आत्मा के अधीन (में ही प्राप्त होने वाले) फल में।
हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-और वह उपेक्षा भावना भी अपने में ही अवस्थित होने से प्राप्त की जा सकती है'-ऐसा यदि चिन्तन करते हो, तो इस उपेक्षा भावनारूप फल में हे भाई! पुरुषार्थ क्यों नहीं करते हो? यदि निरपेक्षतामाध्यस्थ भावना प्राप्त की जा सकती है, (फिर भी) इस शुद्ध भावना के प्रति पुरूषार्थ नहीं करने वाला जड़-बुद्धि ही संसारी होता है। (तथा) उसके प्रति तत्पर तीक्ष्णबुद्धिवाला ही मुक्त हो सकता है-ऐसा अभिप्राय है।
विशेषार्थ-वह उपेक्षाभावना कैसे प्रकट हो? उसकी प्राप्ति के लिए कहाँ जाना होगा, किसी शरण लेनी होगी?'- इत्यादि जिज्ञासाओं के समाधान के लिए अकलंकदेव इस पद्य में लिखते है कि वह उपेक्षाभावना आत्मा में ही उपलब्ध है, उसे प्राप्त करने के लिए किसी तीर्थाटन, कृच्छ्रसाधना या किसी की शरण में जाने की आवश्यकता नहीं है। वह आत्मा में ही प्रत्येक क्षेत्र और प्रत्येक काल में सहज सुलभ है; किन्तु उसकी ओर अनादिकालीन मिथ्यासंस्कारों के कारण ध्यान नहीं दिया गया है - यही इस आशंका व इसकी प्राप्ति की कठिनाई का मूल कारण है।
यहाँ उपेक्षा भावना को 'आत्माधीन' एवं 'सुलभ' बताकर समस्त पराधीनता एवं किसी भी साधन की प्रतीक्षा करने की विवशता को समाप्त कर दिया है। उसे सहज-प्राप्तव्य बताकर आचार्यदेव बड़ा ही स्वाभाविक प्रश्न कर देते हैं कि "हे भाई! जब इस उपेक्षा भावना को कहीं लेने नहीं जाना है, उसके लिए किसी की प्रतीक्षा नहीं करनी हैं, इसको प्राप्त करने के लिए कोई कष्ट भी नहीं उठाना है; तो फिर इसकी प्राप्ति/प्रकट करने के लिए तुम प्रयत्न क्यों नहीं करते हो?"
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