Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 130
________________ - - -- - -- -- - उत्थानिका (कन्नड़ टीका)-कडेयोळु आवुदोन्दुपेक्षाभावनेय पेर्चुगेयिं सुखप्राप्तियक्कुमा भावनेयं माळ्पोडदुवं स्वात्मनिष्टेयप्पुदरिं पडेयलप्पुदरिदल्लिये यत्नमं माडलवेकुमेम्बुदं पेळल्बेडि बन्दुगुत्तरश्लोकं उत्थानिका (संस्कृत टीका)-तन्मध्यस्थ-भावश्च स्वस्मिन्नेव संभवनात् अत्यन्तसुलभरूपं सम्यग्ज्ञात्वा तद्भावनां कुर्वीति शिक्षा प्रचक्षते साऽपि च स्वात्मनिष्ठत्वात् सुलभा यदि चिन्त्यते। आत्माधीने फले तात ! यत्नं किन्न करिष्यसि ।। 23 ।। कन्नड़ टीका-(सुलभा) पडेयल् बर्षुदु (यदि किम्) एनं माळपोडे (यदि चिन्त्यते) येल्लियानु भाविसुवेनेम्बे यक्कुमप्पोडे (का) आबुदु (सापि च) आ परमोपेक्षाभावनेयं (कुत्त:) आवुदु कारणमागि (स्वात्मनिष्ठत्वात्) स्वरूपदल्लिये नेलसिटुंदप्पुटु कारणमागि (तात !) एले आर्य ! (किन्न करिष्यसि ) एके माडे (कम्) एनं (यत्लम्) प्रयत्नम (क्य) एल्ति (फले) भावनारूपमप्प फलदल्लि (कथंभूते) एन्तप्पुदर? (आत्माधीने) स्वात्माधीनमप्पुदरल्लि । संस्कृत टीका-(साऽपि च) सापि चोपेक्षाभावना (स्वात्मनिष्ठत्वात) स्वस्मिन्नेवावस्थितत्वात् (सुलभा) लभ्यमिति (चिन्त्यते यदि) चिन्तितं चेत (आत्माधीने फले) उपेक्षाभावनारूपफले (तात) हे तात ! (यत्नम् ) उद्योग (किन्न करिष्यसि) किमर्थ न करिष्यसि? निरपेक्ष लभ्यं चेत् अस्यां शुद्धभावनायां उद्योगरहितजङबुद्धिरेव संसारी स्यात् । तस्यां तत्परनिशितमतिरेव मुक्त: स्यादिति भाव:। - J उत्थानिका (कन्नड़)-अन्त में, जिस किसी माध्यस्थ भावना की चरमोत्कृष्ट स्थिति में सुख की प्राप्ति होगी, उस उत्कृष्ट भावना का चिन्तन करने से वही स्वात्मनिष्ठ भावना होगी और उसी को प्राप्त करना है। इसलिए उसी की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए- यही बताने के लिए यह श्लोक प्रस्तुत है। उत्थानिका (संस्कृत)-और वह मध्यस्थ भाव अपने में ही संभव होने से (उसकी) अत्यन्त सुलभता भली-भाँति जानकर उसकी भावना करो-ऐसी शिक्षा कहते हैं। खण्डान्वय-साऽपि वह (मध्यस्थ भावना) भी, स्वात्मनिष्ठत्वात् अपनी आत्मा में विद्यमान होने से, यदि अगर, सुलभा सुलभ है-ऐसी, चिन्त्यते-विचारी जाती है, (तो), तात ! =हे भाई ! आत्माधीने फले स्वाधीन फल में, 68

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