Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain
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उत्थानिका ( कन्नड़ टीका ) - स्व- परस्वरूपमनरिदु व्यामोहं बिट्टु निर्व्ययनागि कार्यरूपमप्प, केवलज्ञानक्के कारणमप्प स्वसंवेदनमेनिप कालत्रयदोळं निरावरणमेनिप साक्षात् मोक्षक्के कारणमप्प परमात्मस्वरूपदल्लि अविचलनागि निल्लेम्बुदं पेळल्वेडि बन्दुदुत्तरश्लोकं
उत्थानिका (संस्कृत टीका ) - स्व-परवस्तु- विशेषं ज्ञात्वा तत्र मुह्यतां विसृज्य स्वरूपं ध्यायेति "बुवन्नाह
स्वं परं विद्धि तत्रापि व्यामोहं छिन्दि किन्त्विमम् । अनाकुलं' स्वसंवेद्य-स्वरूपे तिष्ठ केवले । 1 24 ।। कन्नड़ टीका - (विधि) अरि (किम् ) एनं ? ( स्वं परं ) तातुं परनुमेंबी भेदमं (किन्तु ), मत्तं (छिन्दि ) किडिस (कम्) एनं ? ( व्यामोहं ) मुह्यभावमं (कथंभूतम् ) एन्तप्पड ? ( इयं ) एल्लाप्राणिगळं प्रत्यक्षमप्पुदं ( किमपि ) एनं माडोबडं ? ( तथापि ) स्वपरंगळनरिवृत्तिर्दडं (तिष्ठ) अविचलनागि निल्लु (कचम् ) एन्तु ? ( अनाकुलम् ) निर्व्यग्रनागि (क्व) एल्लि ? (स्वसंवेद्यस्वरूपे) तन्निंदं तनसे ताने तोर्प कारणसमयसारस्वरूपदोळु (कथंभूते) एन्तप्प स्वरूपदोळु ? (केवले) निरावरणमप्पुदरल्लि |
संस्कृत टीका - ( स्वं ) त्वं (परं) अन्यत् (विद्धि ) अवैहि (किन्तु ) पुन:, किमिति चेत् (तत्र ) तत्स्वपरवस्तुषु संजातम् (इमं व्यामोहं ) मुह्यत्वं (छिन्दि } द्वैतीभावं कुरू । (अपि) पश्चात् ( अनाकुल: सन् ) परमस्वास्थ्य सम्पन्नः सन्, ( स्वसंवेद्ये) स्वेन ज्ञातव्ये स्वरूपे (केवले) परानपेक्षे (तिष्ठ) अविचलो भव । यावन्मुह्यभावस्तावत् स्वरूपपरिच्छित्तिश्च तत्रावस्थानञ्च न घटत इतिभावः ।
उत्थानिका (कन्नड़) - अपने और पराये स्वरूप को जानकर, व्यामोह छोड़कर, अनाकुलता के कार्यरूप, केवलज्ञान के कारणरूप- ऐसे स्वसंवेदनरूपी, तीनों कालों में निरावरणरूपी साक्षात् मोक्ष के कारणरूप परमात्मस्वरूप में अविचल होकर रहो ऐसा बताने के लिए यह श्लोक प्रस्तुत है 1
उत्थानिका (संस्कृत) - अपनी और परायी वस्तु के विशेष भेद को जानकर, उनमें मोहभाव को छोड़कर स्वरूप का ध्यान करो ऐसा कहते हैं। खण्डान्वय-स्वं=अपने को. परंपर को (यथावत् ) विद्धि = जानो,
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1. 'अनरकुल:' इति सं० प्रति गाठः ।
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