Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 121
________________ की गयी है। ध्यान में बाधक वस्तुओं से निरावलम्बन-युक्त होने का निर्देश देकर अपने शुद्धात्मस्वरूप के ध्यान के लिए सहायक वस्तुओं के प्रति आलम्बन सहित होने का निर्देश है। धवलाकार ने क्षपकश्रेणी वाले ऐसे ध्यातापुरूष को 'सम्पूर्ण लोक ही ध्यान के आलम्बनों से भरा हुआ' बताया है "आलंबणेहि भरियो लोगो जमाइदुमणस्स खबगस्स । जं-जं मणसा पेच्छा तं-तं आलंवणं होइ।।" अर्थ- यह लोक ध्यान के आलम्बनों से भरा हुआ है। ध्यान में मन लगाने वाला भपक मन से जिस-जिस वस्तु को देखता है, वह-वह वस्तु ध्यान का आलम्बन होती है। अन्यत्र भी इस तथ्य पुष्टि प्राप्त होती है। सामान्यत: संसारी जीवों की दृष्टि से इस प्रकरण की व्याख्या संस्कृत टीकाकार ने ‘परचिन्ता को छोड़कर निजात्मा की चिन्ता/चिन्तन करना'-इस रूप में की है। क्योंक उपयोग का एकसमय में एक ही विषय होगा, या तो 'स्व' या फिर 'पर' । अत: यदि आत्मचिन्तन/ध्यान करना है, तो परचिन्ता छोड़नी ही होगी। कन्नड़ टीकाकार ने “सावलम्बन:' पद का 'ग्राह्य-ग्राहक स्वरूप को समझना'-ऐसा अर्थ 'किया है। इसमें यह संकेत है कि परपदार्थ ज्ञान के विषय बनें भी तो भी तुम मात्र उसके 'ग्राहक' अर्थात् 'ज्ञाता' ही रहना; कर्ता या भोक्ता बनने की चेष्टा मत करना। अन्यथा वे तुम्हारे लिए ध्यान में बाधक तत्त्व हो जायेंगे। किस अवस्था में कौन उपादेय है? – इसका विशद वर्णन द्रव्यसंग्रह टीका' में उपलब्ध है। जबकि निष्कर्षरूप से शुद्धात्मद्रव्य ही ध्यान करने योग्य है, वही सब तत्त्वों में परम तत्त्व है। 1. विशेष ०, द्रव्यसंग्रह, चूलिका, 28/82; पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, गम्था 128-1301 2. धवला, 13/5,4,26:32 1 3. विशेष द्र० महापुराण, 21:17-21; द्रव्यसंग्रह, 55; तत्त्वानुशासन, 138 | 4. द्रव्यसंग्रह टीका, अधिकार 2 की चूलिका। 5. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्तिः या० 15, पृ० 341 6. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा० 204 । 59

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