Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 120
________________ रहित हो जाओ। कैसे? अपने से भिन्न समस्त वस्तुओं के आश्रय से, किस तरह की अन्य वस्तुओं के आश्रय से?-त्यागने योग्य वस्तुओं के, क्या करना चाहिये? अच्छी तरह से समझकर, किसको?-उसके अस्तित्व को, किसके अस्तित्व को? हेय ओर उपादेयस्वरूप (तत्त्वों) के, ग्राह्य-ग्राहक स्वरूप को समझ लो (अर्थात् वे वस्तुयें तुम्हारे ज्ञान की विषय है, और तुम उनके ज्ञाता हो, कर्ता नहीं-ऐसा समझ लो), कहाँ? सहज निज आत्मस्वरूप में, कैसे अपने आत्मस्वरूप में?-स्वीकार करने योग्य-ऐसे (निजात्मस्वरूप) में। हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका) होने वाले पंचपरावर्तनरूप संसार और उसके कारणभूत मिथ्यात्वादि परिणाम तथा अनंतसुखस्वरूप मोक्ष और उसके कारणभूत रत्नत्रय-इन सबके स्वरूप की अवस्थाविशेष को जानकर अपने से भिन्नरूप त्यागने योग्य ऐसे संसार, उसके कारणभूत शरीरादि बाह्य वस्तुओं में आश्रयरहित होकर उपेयस्वरूप निजात्मस्वरूप में आलम्बन सहित हो जाओ। परपदार्थों की चिन्ता को छोड़कर निजात्मतत्त्व की ही चिन्ता करनी चाहिए-ऐसा अभिप्राय है। विशेषार्थ-तत्त्व-चिन्तन की प्रक्रिया में तत्त्वों का स्वरूम जानने के साथ-साथ उनकी उपयोगिता जानना भी जरूरी है और तदनुसार बुद्धिपूर्वक प्रवृत्ति भी अपेक्षित हो जाती है। जीवादि तत्त्वों के महत्त्व की दृष्टि से तीन विभाग किये गये हैं - हेयरूप, ज्ञेयरूप और उपादेयरूप। अजीन तत्त्व (पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल) ज्ञेयरूप तत्त्व हैं, इन्हें मात्र जान लो कि इनका स्वरूप क्या है; इनसे न आत्मा को कोई हानि है और न ही लाभ, अत: अन्प किसी प्रतिक्रिया की भी अपेक्षा नहीं है। आम्रव-बन्ध तत्त्व मोक्षमार्ग में बाधक एवं संसार बढ़ाने वाले हैं, अत: उन्हें हेयरूप तत्त्व कहा गया है। तथा उपादेयरूप तत्त्वों में दो विभाग हैं - (1) आश्रय करने के लिए उपादेय तरंच और (2) प्रकट करने के लिए उपादेय तत्त्व । जीवतत्त्व आश्रय करने की अपेक्षा उपादेय है तथा संवर निर्जरा एवं मोक्षतत्त्व प्रकट करने के लिए उपादेयं है।'- इस प्रकार से इन तत्त्वों का स्वरूप भली-भाँति जानकर अन्य सभी हियतत्त्वों, ज्ञेयतत्त्वों एवं प्रकट करने के लिए उपादेय तत्त्वों) के आलम्बन की भावना से रहित होकर आलम्बन करने योग्य परम उपादेय निज शुद्ध जीवतत्त्व का आलम्बन लेने के लिए बुद्धिपूर्वक प्रयत्नशील/सावधान होने का सन्देश इस पद्य में दिया गया है। यह प्रकरण अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। यहाँ ध्यान की प्रक्रिया की सांकेतिक चर्चा 58

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