Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 122
________________ उत्थानिका (कन्नड़ टीका)-निजशुद्धात्मस्वरूपमं भावियेनेंबी कालदोळु बाह्यविषयंगळोळु तृष्णारहितनागु । तृष्णेयुळोडे मोक्षप्राप्तियागदु एम्बुदं पेळल्वेदि बन्दुत्तरपलोकं उत्थानिका (संस्कृत टीका)-तथा सति निजात्मविषयोद्भूत-तीव्रतृष्णां तत्कारणानां त्यागं कुर्यादिति ब्रुवन्नाह तदाप्यतितृष्णावान् हन्त ! मा भूस्त्वात्मनि । यावत्तृष्णाप्रभूतिस्ते, तावन्मोक्षं न यास्यसि ।। 20।। कन्नड़ टीका-(हन्त) एले आत्मा ! (मा भूः) आगदिर (क:) आवं? (तवम्) नीनु (कथंभूतः) एन्तप्पनागदिरु (अतीव तृष्णावान्) आदमानुं बाह्यविषयाकांक्षेयनुळ्ळवनागदिरु (कथम्) एन्तादोर्ड? (तदापि) स्वरूपालम्बनप्रारम्भकालदोळं (क्व) एल्लि तृष्णे इल्लदिरवेळ्कुं? (आत्मनि) निन्नात्मनल्लि, (कुत:) आबुदु कारणमागि? (न यास्यसि) येय्दुवुवल्ल (एनं मोक्षम्) एल्ल फर्मगळ केडु (कथम्) एन्तु? (तावत्) अन्नेवरेगं (यावत्किम् } एन्नेवरेगेवेनु? (यावत् तृष्णाप्रभूति:} एन्नेवरेगं काक्षेय पेढुंगे (कस्य) आवंगे? (ते) निनगे। __ संस्कृत टीका-(तथापि) तद्वदपि (हन्त) अहो जीव! (त्वम् ) भवान् (आत्मनि) स्वस्वरूपे (अतीव तृष्णावान्) अतीव कांक्षावान् (मा भूः) मा भव; (न यास्यसि) न गम्यसि । निजात्मविषयेऽपीति तीव्रकांक्षा चेत्, लोभकषायो न नश्यति । तस्य विनाशं बिना स्वस्वरूपावाप्तिर्न स्यात् । तस्मात् तीव्रतृष्णा मोक्षस्य प्रतिबन्धकत्वात् त्याज्येति भावः । उत्थानिका (कन्नड़)-निजशुद्धात्मस्वरूप की भावना के काल में बाह्य विषयों में तृष्णारहित हो जाओ, क्योंकि तृष्णा के रहते हुए मोक्ष की प्राप्ति कभी भी संभव नहीं है-ऐसा बताने के लिए प्रस्तुत श्लोक आया है। उत्थानिका (संस्कृत)-वैसा होने पर (परपदार्थों की चिन्ता छोड़कर आत्मचिन्ता करते समय) निजात्मा के विषय में उत्पन्न तीव्र तृष्णा और उसके कारणों का त्याग करना चाहिए-ऐसा बताते हुए कहते हैं। खण्डान्वय:-हन्त ! =हे आत्मन! तथापि ऐसा (आत्मचिन्तन) होने पर भी, त्वम्=तुम, आत्मनि=अपने विषय में (भी), अतितृष्णावान् अत्यन्त तृष्णा से I. 'तथाप्पतीव......', इति सं० प्रति पाठः। 60

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