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उत्थानिका (कन्नड़ टीका)- नीनदु कारणदिंदौपधंगळं केडिसल्वेडि । आवुदं? निर्मोहनागि विनिर्भिग्नवप्प सकलपदार्थगळोळु निरपेक्षनागि स्वस्वरूप-ध्यानपरनागेन्दु पेळल्वेडि बन्दुदुत्तरश्लोक
उत्यानिका (संस्कृत टीका)-इत्येवं ज्ञात्वा सर्वबाह्यवस्तुषु व्यामोहं विसृज्य स्वस्वरूपभावनां कुर्यादिति शिक्षयन्नाह
ततस्त्वं दोषनिर्मुक्त्यै निर्मोहो भव सर्वत: ।
उदासीनत्वमाश्रित्य तत्त्वचिन्तापरो भव ।। 18 ।। कन्नड़ टीका-(त्वम्) नीनु (भव) आगु (कीदृग्भूत:) एन्तप्पनागु? (निर्मोहः) मोहमिल्लदवनागु (कस्मात्) आवृद्ध कारणदिदं (तत:) कषायदोळ कूडिद चित्तत्त्वम पोर्ददल्लदुकारणदिदं (कस्य) आवुदक्कोसुनं निर्मोहनप्पं (दोषनिर्मुक्त्यै) रागद्वेषंगळ के कारणमागि (निर्मोहो) निर्मोहनागि भव) आगु (कीदृशः) एन्तपवनागु? (तत्त्वचिन्तापरः) कारणपरमात्मस्वरूपभावनेयनग्गळनागु (किं विधाय) एनं माडि? (आश्रित्य) पोईि (किम्) एन? (उदासीनत्वम्) परम-माध्यस्थ्यं (क्य) एल्लि? (सर्वत:) सव्यतिरिक्तमप्प समस्तवस्तुगळोलु। ___ संस्कृत टीका-(ततः) तेन कारणेन (त्वम्) भवान् (दोषनिर्मुक्त्यै) राग-प्रेष-परिहरणार्थ (सर्वत:) समस्तबाह्यवस्तुषु (निर्मोहा भव) मोहरहितो भव । तथा मोहरहित: सन् (उदासीनत्वम् ) शत्रुमित्रादिषु मध्यस्थभावं (आदित्य) प्राप्य (तत्त्वचिन्तापरो भव) आत्मस्वरूपभावनातत्परो भव ।
_उत्थानिका (कन्नड़)-इस कारण से तुम उपाधियों (से अपने को) दूर करो। कैसे? निर्मोही बनकर अत्यन्त भिन्न होकर समस्त पदार्थों में से निरपेक्ष होकर अपने आत्मस्वरूप के ध्यान में तत्पर बनो। इस बात का प्रतिपादन करने के लिए यह श्लोक प्रस्तुत है।
उत्थानिका (संस्कृत)-इस प्रकार जानकर समस्त बाह्य वस्तुओं में व्यामोह छोड़कर निजस्वरूप की भावना करनी चाहिए-इस प्रकार शिक्षा देते हुए कहते
खण्डान्वय-ततः इस कारण से, त्वं-तुम, दोषनिर्मुक्त्यै-दोषों के निवारण के लिए, सर्वत: सब ओर से, निर्मोहो=मोहरहित, भव हो जाओ (तथा) उदासीनत्वं उदासीनता का, आश्रित्य आश्रय लेकर, तत्त्वचिन्तापर: तत्त्वचिंतन में तत्पर, भव हो जाओ।
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