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चूंकि कषायें जीव का स्वरूप या गुण नहीं है, अपितु विकार हैं; अत: उनसे भरे हुए चित्त में अकषायस्वभावी ज्ञायकतत्त्व का निर्णय भी असंभव है, अनुभव तो बहुत दूर की बात है। ये कषायें नीव को आत्महित किंवा मोक्षमार्ग से दूर रखती हैं; क्योंकि ये कषायें जन्म-मरणरूपी दुःखों की खेती हैं, कर्मबन्ध की कारण हैं, आत्मा के स्वाभाविकरूप की घातक हैं। एवं चारित्र के परिणामों को नष्ट करती हैं। ____ आगमग्रन्थों में सम्यग्दर्शन की कारणभूत पाँच लब्धियों की चर्चा आती है। .. वे हैं-क्षयोपशम लब्धि, विशुद्धि लब्धि, देशना लब्धि, प्रायोग्य लब्धि और करण लब्धि ।' इनमें तीसरी लब्धि - देशना लब्धि है, जिसके फलस्वरूप आत्महितकारी उपदेश का ग्रहण होता है। इसके पहिले की दोनों लब्धियाँ इसकी कारणभूत हैं। सुनने-समझने योग्य पात्रता अर्थात् संझी पञ्चेन्द्रियपना की प्राप्ति होना 'क्षयोपशम लब्धि है; जो कि सौभाग्य से चारों गतियों के संज्ञी पञ्चेन्द्रिय जीवों को सामान्यरूप से प्राप्त है। यह देशना के लिए साधारण पात्रता है। विशेष पात्रता है – विशुद्धि लब्धि। संसारी जीव के आत्मिक परिणामों में कषायों का उद्रेक (तीव्रता) न होने की वह विशिष्ट अवस्था, जिसके फलस्वरूप जीव आत्महितकारी उपदेश/तत्त्वज्ञान को ग्रहण कर सके-उसे विशुद्धि लब्धि कहा गया है। इसके अभाव में कर्णकहरों में धर्मोपदेश का श्रवण भले ही हो जाये, किन्तु अत्मिक परिणामों में उसका ग्रहण होना असंभव है। कदाचित् बुद्धिपूर्वक विचार भी वह कषायकलुषित चित्तवाला जीव करे. तो भी उसे वह धर्मोपदेश या तो अभिमान का हेतु बनता है, या फिर राग-द्वेष का। अत: यहाँ कषायोद्रेक का निषेध क्रिया गया है, ताकि देशनालाभ जीव कर सके।
1. विशेष द्र, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश, भाग 2, पृष्ठ 39 | 2. विशेष द्र०, धवला, 5:1,7,44:223 |
पंचसंग्रह (प्राकृत), 1:109 ।
सर्वार्थसिद्धि, 6/41 5. राजन्नार्तिक, 26:2 एवं 6:4/2 | 6. वही, 9:7/11। 7. मोक्षमा प्रकाशक, अध्याय 1, पृ0 261 तथा धवला 6/1,9-8.3/204 । 8. विशेष द्र०, मोक्षमार्गप्रकाशक. पृष्ठ 257, 3121
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