Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

View full book text
Previous | Next

Page 117
________________ हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका)-तुम हो जाओ. कैसे हो जाओ? मोहरहित हो जाओ। किसलिए (हो जाओ)? कषायों से भरा चित्त 'तत्त्व' को पाता नहीं है-इस कारण से. किसके लिए निर्मोही बन जायेगा?-राग-द्वेषरूपी दोषों से मुक्त होने के लिए मोहरहित बन जाओ। किस प्रकार के व्यक्ति बन जाओ?-इस कारण परमात्मस्वरूप की श्रेष्ठ भावना का चिन्तन करो। क्या करके? प्राप्त करके, किसको प्राप्त करके? परम-उत्कृष्ट माध्यस्थ भाव को (प्राप्त करके)। कहाँ? अपने से व्यतिरिक्त (अलावा) समस्त वस्तुओं में। __ हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-इस कारण से आप राग-द्वेष को दूर करने के लिए समस्त बाह्य वस्तुओं में मोहरहित हो जाओ। तथा मोहरहित होते हुए शत्रु-मित्रादिकों में माध्यस्थ भाव प्राप्त करके आत्मस्वरूप की भावना में तत्पर हो जाओ। विशेषार्थ-मोक्षमार्ग की शुरूआत के लिए सम्यग्दर्शन को प्राथमिक आवश्यकता ।। माना गया है तथा सम्यग्दर्शन के लिए 'दर्शनमोह' को दूर करना अनिवार्य है। अत: जो-जो दर्शनमोह के पोषक साधन है, उन सभी से बुद्धिपूर्वक बचना चाहिए; ताकि दर्शनमोइनीय का उपशम/क्षयोपशम/क्षय करके सम्यग्दर्शन प्रकट हो सके । यहाँ प्रयुक्त निर्मोहो भव सर्वतः' वाक्यांश इसी तथ्य की सूचना देता उदासीनता' का अर्थ है पर से चित्त का हटना और आत्मा में उपयोग का रमना'। उदासीनता की अध्यात्मग्रन्थों में बड़ी महिमा गायी गयी है। यहाँ तक कह दिया गया कि "मोक्ष की सहेली है अकेली उदासीनता ।" आजकल उदासीनता को उत्साहहीनता का प्रतीक माना जाने लगा है, किन्तु अध्यात्म के क्षेत्र में आत्मा की व्यर्थ की अप्रयोजनभूत क्रियाओं से रूचि हटाने एवं आत्मतत्त्व में सम्पूर्ण उत्साह एवं पुरूषार्थ के साथ उपयोग को केन्द्रित करने का ही दूसरा नाम उदासीनता है। इसके लिए भी करें क्या? पर से उपयोग बहत हटाना चाहते हैं, किन्तु उपयोग आलम्बन के बिना भी तो नहीं रहता है, तथा आत्मानुभूति के बिना आत्मा का आलम्बन भी नहीं हो सकता है। तो पर से हटाकर उपयोग को कहाँ ले जाया जाये? क्या किया जाये?--यह एक स्वाभाविक प्रश्न है। इसका समाधान करने के लिए. आचार्यदेव लिखते हैं - "तत्त्वचिन्तापरो भव" अर्थात् तत्त्व के चिन्तन-मनन और अभ्यास में तल्लीन हो जाओ।' पंडितप्रवर टोडरमल ने भी 55

Loading...

Page Navigation
1 ... 115 116 117 118 119 120 121 122 123 124 125 126 127 128 129 130 131 132 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153