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उत्थानिका (कन्नड़ टीका)-राग-द्वेषसहितनागि आत्मस्वल्पं भाविसे दोषमाबुदेने पेळल्वेडि बन्दुत्तरश्लोक
उत्थानिका (संस्कृत टीका)-राग-द्वेष-रहित: सन् आत्मभावनां कुर्यादित्युक्तं भवद्भिः, सराग: सन् भावना क्रियते चेद् विरोध:, स क इत्याशंकामामाह
कषायै रंजितं चित्तस्तत्त्वं नैवावगाहते। नीली-रक्तेऽम्बरे रागो दुराधेयो हि काँकुमः ।। 17 ।।
कन्नड़ टीका-(नैवावगाहते) पोर्दुवुल्लदु (तत्त्वम्) मोक्षक्के कारणमप्प निजशुद्धात्मस्वरूपमं भाविसे (कथम्) एन्तु? (हि) येतीग (दुराधेय:) निलिसल्बारददु (क:) आबुद? (रागः) केम्मु (कथंभूतम्) एन्तप्पुद? (कौंकुम:) कुंकुमसंबंधियप्पुदु (क्व) एल्ति? (अम्बरे) वस्त्रदोळु, (कथंभूते) एन्तप्प वस्त्रदोळु? (नीलीरक्ते) नीलीद्रव्यदोळ् कूडिद। __ संस्कृत टीका-(नीलीरक्ते) नील्यावर्णीकृते (अम्बरे) वस्त्रे (कोकुमो राग:) कुंकुमस्य वर्ण: (दुराधेयः) दुःखेन महता कष्टेन धार्मः यथा स्यात् तथा, (कषायै:) रागादिकषायैः (रंजितम्) कसुषितं (चेत:) चित्तं (तत्त्वं) वस्तुरूपं (हि) येन कारणेन (नैवावगाहते) निश्चितमशक्तम् । तेन कारणेन रागादिदोषान् परिहरति सती भवेत् । तेन स्वास्थ्येन वस्तुस्वरूपज्ञानं स्यात् । तेन वस्तुस्वरूपज्ञानेन शुद्धात्मभावना लभ्यत-इति भावार्थः ।
उत्थानिका (कन्नड़)-राग-द्वेष के साथ आत्मस्वरूप का चिन्तन करने से दोष क्या है?-इस बात को स्पष्ट करने हेतु यह पलोक आया है।
उत्थानिका (संस्कृत)-राग-दोष से रहित होकर आत्मा की भावना करो-ऐसा आपके द्वारा कहा गया; यदि उस राग के रहते हए भावना करें, तो विरोध (आता है), वह क्या? ऐसी आशंका होने पर कहते हैं
खण्डान्वय-कषायैः कषायों से, रञ्जितम् रंगा हुआ, चेत:=मन या उपयोग, तत्त्वं आत्मतत्त्व को, नैवाबगाहते=ग्रहण नहीं कर सकता है। हि क्योंकि, (जैस कि) नीलीरक्ते-नीले रंग से रंगे हुए, अम्बरे-वस्त्र में, कौकुमो राग: कौंकुमी रंग, दुराधेयः दुराधेय है (चढ़ना अत्यन्त कठिन है)। __हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका)-ग्रहण नहीं किया जा सकता है, मोक्ष के लिए कारणभूत निज्ञ शुद्धात्मस्वरूप की भावना का चिंतन, कैसे? जैसे कि चढ़ाया नहीं जा सकता है, क्या? लालिमा, किस तरह की लालिमा?-कुंकुम जैसी, कहाँ?
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