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से व्यवहार चारित्र हुई और निश्चय चारित्र उसका साध्य हुआ। ___ भावना-आत्मा के द्वारा जिनका बार-बार अनुशीलन किया जाता है, उसे 'भावना' कहते हैं अथवा जाने हुए पदार्थ का पुन: पुन: चिन्तन करना भावना है।' अत: "मैं ज्ञाता-दृष्टा हूँ, एक हूँ" इत्यादिरूप से निरन्तर चिन्तन चलना चाहिए: वह व्यवहार चारित्र है तथा ऐसी आत्मानुभूति होना निश्चयचारित्र है। यह आत्मभावनारूप व्यवहारचारित्र आत्मानुभूतिरूप निश्चयचारित्र को प्राप्त कराता है। ___ आगम में 'माध्यस्थ भावना' को व्रतों की रक्षणार्थ बतायी गयी 'मैत्री' आदि चार भावनाओं में परिगणित किया गया है। तथा उनमें माध्यस्थ भावना का स्वरूप 'अविनीत/दुर्जन या विपरीतवृत्ति लोगों के प्रति तटस्थ भाव रखने को माध्यस्थ भावना' कहा गया है। किन्तु यहाँ प्रयुक्त 'माध्यस्थ भावना' का अर्थ व्यापक एवं स्वरूप अति उदात्त है। इसमें सुख-दु:ख में समताभावपूर्वक "मैं ज्ञायकमात्र हूँ' – ऐसे चिन्तन की निरन्तरता को ‘माध्यस्थ भावना' कहा गया है। यह अकलंकदेव की उत्कृष्ट आध्यात्मिकता का परिचायक है।
1. तत्वार्थराजवार्तिक; 1/1/3 | 2. नियमसार, गाया 83 | 3. छहढाला, तीसरी ढाल, पद्य प्रथम ।
नियमसार, गाथा 82 एवं टीका। "जो सत्यारध रूप सो निश्चय, कारणसो व्यवहारो।'' - छहढाला; तथा समयसार,
गाथा । 6. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 7/3:11 7. पंचास्तिकाय, तात्पर्यवृत्ति, गा० 46 | 8. तत्त्वार्पसूत्र, 711 ज्ञानार्णव 27/4 । 9. अमितगति सामायिकपाठ, 11