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उत्थानिका (कन्नड़) - इस प्रकार परवस्तु को ही प्रकाशित करना और एक
( अपने ) को प्रकाशित करना इस ज्ञान के अपने कार्य से भिन्न है अथवा अभिन्न है ?- ऐसा योगवादियों एवं बौद्धों के मत का निराकरण करके सम्यग्ज्ञान (का स्वरूप बताया, अब उस ) के बाद सम्यक्चारित्र का वर्णन करने के लिए आगे का श्लोक आया है।
उत्पानिका (संस्कृत) - ( दो श्लोकों द्वारा युगपत् ) सम्यक्चारित्र का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं ।
खण्डान्वय- उत्तरोत्तरभाविषु = आगे-आगे होने वाली दर्शनज्ञान पर्यायेषु दर्शन और ज्ञान की पर्यायों में स्थिरम् = दृढ़, आलम्बनं = आलम्बन करना, वा- अथवा, यद्=जो, सुखदुःखयो:=सुख और दुःख में, माध्यस्थं - माध्यस्य भाव का होना (ही चारित्र है ) ।
अथवा = अथवा, सुखे = में, च = और, दुःखे दुःख में अहं = मैं एक: एकमात्र, ज्ञाता- दृष्टा- जानने-देखने वाला हूँ, अपरः न = अन्य कोई (किसी रूप ) नहीं हूँइति - इस प्रकार की, इदं = इस भावनादाद = भावना की दृढ़ता को चारित्रं मतम् = चारित्र माना गया है।
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हिन्दी अनुवाद ( कन्नड़ टीका ) - स्वीकार किया गया है क्या (स्वीकार किया गया है ) ? चारित्र है ऐसा (स्वीकार किया गया है), किसे? अपने आप ही स्थिर होकर विषय बन जाता है, किन-किन विषयों में? दर्शन और ज्ञान की पर्यायों में, किस प्रकार की प्रर्यायों में? पुनः पुन: कारण- कार्यरूप से परिणमित होने वाली (पर्यायों) में अथवा दूसरे ( प्रकार से कहें, तो ) कौन-कौन ? समत्वीभाव से या साम्यभाव से किन-किन भावों में? सुख और दुःखों में
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अथवा यह चारित्र है - यह कैसे माना गया है ? किसे? अपने स्वरूप के परिचिन्तनरूप स्थिरता को कैसे ? जाननस्वभाववाला एवं देखनेवाला, (वह) कौन है ? ( वह) मैं (स्वयं) हूँ। और किस प्रकार का है? अकेला ही है, कहाँ है? सुख में और दुःख में भी, अन्य कोई भी ( उसका सहभागी) नहीं है।
हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका ) -आगे-आगे होने वाली दर्शन और ज्ञान ( की पर्यायों) के उत्कर्षो में अविचल होकर आश्रय लेना चारित्र कहा गया है I अथवा पुनः जो हर्ष-विषाद से रहित उदासीनभाव है, वही चारित्र है - (ऐसा जानना चाहिए ) | में.
अथवा जाननेवाला और देखनेवाला (तत्त्व ) मैं ही हूँ, सुख
में
तथा दुःख
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