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रहता है, किन वस्तुओं से? फलस्वरूपी घट-पटादि वस्तुओं से, कैसे? संज्ञा एवं संख्या आदि के प्रकार की अपेक्षा से। ___हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-वस्तुस्वरूप का अतिक्रमण किये बिना वस्तु का ज्ञान विशेष सम्याज्ञान होता (कहलाता) है। वह सम्यग्ज्ञान, जैसे दीपक अपने और पदार्थों का निर्णयात्मक ज्ञान करता, अपना और परपदार्थों का प्रकाशक होता है, उसी के समान (वह ज्ञान होता है। इसलिए ज्ञान अपने और परपदार्थ का प्रकाशक होता है तथा) ज्ञानविशेषरूप प्रमिति से कथंचित भिन्न होता है। इस प्रकार का ज्ञान अपनी फलरूप प्रमिति से सर्वधा भिन्न होता है- ऐसा अभिप्राय है।
विशेषार्थ-पिछले पद्य में 'सम्यग्दर्शन' का निरूपण करते समय अकलंकदेव की शैली विशुद्ध आध्यात्मिक रही, किन्तु यहाँ सम्पाज्ञान के वर्णन-प्रसंग में उनका न्यायविषयक ज्ञान मुखर हो उठा है और प्रमाणपरक शब्दों में न्यायशास्त्रीय शैली में उन्होंने सम्यग्ज्ञान का परिचय दिया है।
परीक्षामुखसूत्र के कर्ता आचार्य माणिक्यनन्दि ने प्रमाण का लक्षण"स्वापूर्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणम् लिखा है तथा उनका यह ग्रंथ अकलंकदेव के वचनों पर आधारित है - ऐसा उनके टीकाकार स्वीकार करते हैं -
“अकलंकवचोम्भोधेरुदधे येन धीमता।"1 यहाँ पर स्वव्यवसायात्मक एवं अर्थव्यवसायात्मक ज्ञान को ही सम्यग्ज्ञान माना है। परीक्षामुख में भी प्रमाण का यही स्वरूप माना गया है। वहाँ ज्ञान का स्वपरप्रकाशकत्व सिद्ध करने के लिए 'प्रदीपवत्' दृष्टान्त भी दिया गया है। प्रमाणम् 2 के रूप में प्रमाण' की न्यायशास्त्रीय चर्चा को यहाँ प्रस्तुत कर दिया है। प्रमिति को प्रमाण का फल कहा गया है और उसे सम्परज्ञानरूप होने से प्रमाण से अभिन्न भी माना गया है तथा फलरूप होने से प्रमाण से भिन्न भी माना गया है। इस प्रकार प्रमाण एवं प्रमाणफल की कथंचित् भिन्नाभिन्नता प्रमाणविषयक न्यायशास्त्रीय विवेचन का प्रमुख अंग है।
चूंकि योगमतावलम्बी प्रमाण से प्रमिति को सर्वथा भिन्न मानते हैं तथा बौद्ध सर्वथा अभिन्न मानते हैं, उन दोनों के मतों का निराकरण करते हुए प्रमिति से ज्ञान की भिन्नाभिन्नता यहाँ बतायी गयी है।
प्रमाण की परिभाषा में पहला पद है 'स्व' । जब तक ज्ञान स्वयं को नहीं जानेगा, वह पदार्थ को भी नहीं जान सकेगा। जैसे कि दीपक जब तक स्वयं प्रकाशित नहीं होगा, वह घर पर पदार्थों को भी प्रकाशित नहीं कर सकता। ज्ञान
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