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यहाँ 'दर्शन' पर सम्पग्दर्शन का सूचक है, किन्तु ग्रंथकार ने उसे 'आत्मनो दर्शनम्' (आत्मदर्शन) कहकर निश्चय वीतराग सम्यादर्शन' की ओर अपना रुझान व्यक्त किया है।
सर्वप्रथम सम्यादर्शन ही आश्रय करने योग्य है, क्योंकि इसके होने पर ही ज्ञान' एवं 'चारित्र' सम्पपने को प्राप्त करते हैं। सम्पग्दर्शन की महिमा का गुणगान करते हुए युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्द लिखते है कि सम्पादर्शन प्राप्त जीव ही पवित्र है, वही निर्वाण को प्राप्त करते हैं। तथा सम्यग्दर्शन से रहित जीद उस वाञ्छित लाम (सुख या मोक्ष) को ही नहीं पा सकता है। उन्होंने इसे धर्म का मूल बताया है। सम्यग्दर्शन से रहित व्यक्ति बहत शास्त्रों का ज्ञाता भी हो, उग्र तपस्वी भी हो, हजारों वर्षों तक तपस्या भी करे; तब भी वे बोधिलाभ को प्राप्त नहीं कर सकते हैं और संसार में ही परिभ्रमण करते हैं। जबकि सम्पक्त्व सहित जीवों पर पञ्चमकाल का दोष लागू नहीं पड़ता है तथा वे शीघ्र (दो-तीन भवों में ही) केवलज्ञान को प्राप्त कर लेंगे।'
सम्यग्दर्शन के आगमग्रन्थों में वर्णित विभिन्न लक्षणों का समन्वय पंडित टोडरमल जी ने भली-भाँति किया है।
1. तत्त्वार्थसूत्र, 11। 2. द्र० नियमसार, शुद्धभाव अधिकार * पुरुषार्थीसद्धयुपाय, 216, पद्म पंच 4/14 |
पुरुषाशीसद्धपुपाय, 21; तथा राजवार्तिक 1/1/31 | मोक्सपाहुड, 311
'दसणमूलो धम्मो.......' - दसणपाहुड, 2 | 6. वही, 4,5। 7. वही, 6,71 8. मोक्षमार्ग प्रकाशक, नौवा अध्याय, पृ० 323 से 330 तक।
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