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हिन्दी अनुवाद ( कन्नड़ टीका ) - वह आत्मा एक (रूप ही नहीं है, किस कारण से? घर पर आदि विषयों को जानने वाले अनेकज्ञानस्वभावी होने के कारण से, तो क्या वह अनेकरूप है ? ( वह एकान्ततः ) अनेक भी नहीं है। किस कारण से? चैतन्य ही उसका एकमात्र स्वरूप होने के कारण। तो वह आत्मा कैसा होगा? वह एकानेक स्वरूपवाला होता है।
हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका ) - नाना हैं जो ज्ञान, वह नानाज्ञान; वे ही हैं स्वभाव - स्वरूप जिसके वह नानाज्ञानस्वभावी । उसके नानाज्ञानस्वभावत्व के कारण चैतन्यसामान्यरूप मुख्यधर्मवाला चेतन एक ही स्वरूप है जिसका, वह चेतनैकस्वरूपी है, इस कारण से वह आत्मा अनेक भी नहीं होता है । फिर किस रूप होता है ? (यदि ऐसा ) पूछा जाये ( तो कहते हैं, कि वह ) एकानेक स्वरूपी होता है। सामान्य चैतन्यगुणवाला और उसका ज्ञान विशेषत्व रूपवाला ( वह आत्मा ) स्वयं ही है। इस कारण से वह आत्मा एकानेकस्वरूपी होता है--ऐसा अभिप्राय है।
विशेषार्थ - ज्ञान के विषयभूतं पदार्थों की अनेकविधता के कारण से जो ज्ञान में घटज्ञान- पटज्ञान आदि रूप से विविधिता मानी जाती है, उस विविधता के कारण ज्ञानमात्र कहा गया आत्मा भी अनेकरूप कहा जाता है। तथा इन अनेकविधज्ञानों में व्याप्त चित्शक्ति की एकता के कारण आत्मा की एकता अखंडित है और वस्तुतः वह एकरूप ही है। यह ज्ञान / आत्मा का उभयात्मकरूप वास्तव में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। यदि अनेकरूपता पर प्रश्नचिह्न अंकित किया जाये, तो आत्मा का लोकालोकप्रकाशकत्व (सर्वगतत्व) खतरे में पड़ जायेगा । तथा यदि ज्ञानसामान्य या चेतनासामान्य पर आधारित एकरूपता नहीं मानी जाये, तो आत्मा की अखंडता एवं एकता पर प्रश्नचिह्न अंकित हो जायेगा। अतः वस्तुगतरूप में आत्मा का एकानेकात्मत्व रूप ही सुन्दर है तथा दृष्टिकोण - विशेष के आधार पर सम्यक्नय के द्वारा उसको एकरूप या अनेकरूप कहा जाना भी आपत्तिजनक नहीं है। किन्तु मिथ्या एकान्तवादी यदि उसे सर्वथा एकरूप या अनेकरूप बतायें, तो वह सर्वथा एकान्तवाद वस्तुविरोधी होने से उनके वचनों को अनेकान्तरूपी शस्त्र के द्वारा खंडन - योग्य बना देगा |
मात्र अद्वैत वेदान्ती (ब्रहमाद्वैतवादी) ही एकात्मवाद को मानते हैं, शेष न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, मीमांसा एवं जैन इन सभी दर्शनों में अनेकात्मवाद की मान्यता है।
1. विशेष द्र०,
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जैनदर्शन में आत्मविचार; पृष्ठ 87 से 91 तक ।
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