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यह समासयुक्त पद आत्मा के मुक्तस्वरूप की पर्याय में अभिव्यक्ति के साधन की सूचना देता है। इससे टीकाकार ने बहिरंग एवं अन्तरंग तप आदि मोक्षसाधनों का ग्रहण किया है।
एक और बात यहाँ ध्यान देने योग्य है, वह यह कि 'यः कर्मणां कर्त्ता, स एव तत्फलानां भोक्ता ऐसा जो वाक्यप्रयोग है, वह बौद्धों की 'कर्मसन्तान' एवं 'क्षणिकवाद' की मान्यता का तो निराकरण करता ही है; क्योंकि इसका स्पष्ट संकेत है कि जो आत्मा कर्म को करता है, वही उस कर्म के फल को भोगता है, अन्य नहीं' । ' तथा 'महिरंग एवं अन्तरंग साधनों से अनिवार्य रूप से कर्मबन्धन से मुक्ति प्राप्त होना' कहकर मीमांसकों की मान्यता ( कि आत्मा कर्मबन्धन से कभी मुक्त नहीं हो सकता ) का भी निराकरण तो किया ही है, साथ ही कर्मबन्धन से मुक्ति के उपाय भी बता दिये हैं।
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आचार्य उमास्वामी ने 'तप' से संदर एवं निर्जरा- दोनों का विधान किया है, " तथा संवर- निर्जरा ही मोक्ष के साधन हैं- इस प्रकार तप को मोक्षसाधन कहना न्यायसंगत भी है। तप में अन्तरंग एवं बहिरंग दोनों का ग्रहण करके निश्चय - व्यवहार का सन्तुलनपूर्वक वास्तविक मोक्षपथ बताया है। सांख्य ने पारमार्थिक मुक्ति नहीं मानी है । "मुक्तत्त्वमेव ' ' पद में 'एवकार' का प्रयोग करके जीव परमार्थत: मुक्त होता है- यह स्पष्ट किया है।
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विशेष द्र० अमितगति श्रावकाचार, 4/35; तत्त्वार्थराजवार्तिक, 2:10 1; न्यायकुमुदचन्द्र, पृ० 819 आप्तपरीक्षा, पृ० 114 |
स्याद्वादमंजरी, 18 अमितगतिश्रावकाचार, 4/87 : आप्तमीमांसा 51 तत्त्वार्थवार्तिक 7/1/57 एवं अष्टसहस्री, पृ० 182, 197 |
तत्त्वार्थ राजवार्तिक, प्रथम अध्याय की भूमिका, वार्तिक 6 का भाष्य ।
"मः कर्म करोत्यात्मा, स एव तत्फलमश्नुते ।'
द्र० राजवार्तिक, 10:2/3; कसायपाहुडे 1/1-1/42/60
"तपसा निर्जरा व ।" - तत्त्वार्थसूत्र 9:31
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