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हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका)-भोक्ता है, कितना (भोक्ता है)? उन कर्मफलों का कौन (भोक्ता है)? नहीं तो, वह कैसा है? कर्ता है, किनका (कर्ता है)? सुख-दुःखादिफल फल देने वाले कर्मों का। उन कर्मों का क्या होगा? वे मुक्त हो जायेंगे। कैसे (मुक्त हो जायेंगे)? निश्चय ही, किन कारणों से? बाह्य और आभ्यन्तर कारणों से।
हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-जो ज्ञानावरणादि कर्मों का कर्ता है और वही जीव उन कमों के फलों का भोक्ता-अनुभव करने वाला है। बाह्य एवं आभ्यन्तर तपश्चरणरूप उपायों से उन कर्मों का मोक्ष (छुटकारा) निश्चय ही होता है।
विशेषार्थ:-पिछले पद्य में विशिष्ट कारणपूर्वक आत्मा को कर्मों का कर्ता, कर्मफल का भोक्ता एवं कर्मबन्धन से पूर्णतया मुक्त होने वाला - त्रिविधरूम बताया था। वह कथन क्रमशः सांख्यों, बौद्धों एवं मीमांसकों की आत्माविषयक मान्यताओं के लिए अनुकूल नहीं थे। क्योंकि सांख्य का पुरुष कूटस्थ नित्य होने के कारण कर्मों का कर्ता हो नहीं सकता, अत: आत्मा को कर्मों का कर्ता' कहा जाना सांख्य को कदापि इष्ट नहीं हो सकता है।' तथा बौद्ध समस्त पदार्थों को क्षणिक मानते हैं, अत: आत्मा भी क्षणिक है एवं कर्म भी क्षणिक हैं - ऐसी स्थिति में वही आत्मा भविष्य में उन कमों के फलों का भोक्ता कैसे कहा जा सकता है? अत: वे (बौद्ध) स्वयंकृत कर्मों का भोक्तृत्व आत्मा की सन्तान को मानते हैं।' इसी प्रकार मीमांसकों में 'कर्म' से आत्मा की नितान्त मुक्ति नहीं मानी गयी है, और जब कर्मों से आत्मा मुक्त ही नहीं होगा; तो उसे 'मोक्षस्वरूपी' या 'मुक्तात्मा' संज्ञा भी नहीं दी जा सकती है। ___ सांख्यों, बौद्धों एवं मीमासकों की इन आशंकाओं का निराकरण करने के लिए इस पद्य में अकलकदेव ने आत्मा का कर्मकर्तत्व, कर्मफलभोक्तृत्व एवं कर्मबन्धन से मुक्त होना - इन तीनों का विवेचन किया है।
यहाँ तेषां मुक्तत्वमेव हि वाक्यांश विशेषरूप से ध्यान देने योग्य है। इसमें 'एव' तथा 'हि' - ये दो निश्चयार्थक अव्यय प्रयुक्त हुए हैं। इससे ग्रंधकर्ता का यह अभिप्राय प्रकट होता है कि त्रिकाल अबाधित द्रव्यस्वभाव की अपेक्षा से तो आत्मा मुक्तस्वरूपी ही है तथा कर्तृत्वशक्ति एवं भोक्तृत्वशक्ति भी स्वभावत: होने से 'कर्ता' एवं 'भोक्ता' भी आत्मा को कहा गया है। इस प्रकार स्वभाव की अपेक्षा ये तीनों विशेषतायें आत्मा की कही गयी हैं। किन्तु 'बहिरन्तरुपायाभ्याम्'
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