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उत्थानिका-(कन्नड़ टीका)-इंतनेकधर्ममुमं बन्ध-मोक्ष-तत्फलमुमं आत्मने माडुबनेने सांख्यं कर्मगळिगात्म कर्तृवल्लनेने, सौगतं स्वकृतकर्मगळ्गे स्वयं भोक्तृत्ववल्लं, सन्तानमे भोक्तृवेने मीमांसकरोळो कर्मगलिंदात्म मुक्तनल्लनेने बन्दुदुत्तरश्लोकउत्थानिका-(संस्कृत टीका)-कर्मण: कर्तृत्वादीनि स्वरूपाणि वक्तुमिदमाहकर्ता य: कर्मणां भोक्ता, तत्फलानां स एव तु । बहिरन्तरुपायाभ्यां तेषां मुक्तत्वमेव हि ।। 10।। कन्नड़ टीका-(भोक्ता) भोक्तृ (केषाम् } आववर्के? (तत्फलानाम्) आ कर्मफलंगळ्गे (क:) आवं? (स एव तु) आतने मत्ते (य: कीदृशः) आवनानुमोर्वनन्तप्पं? (कर्ता) कर्तृ (केषाम्) आवक्के? (तत्फलानां कर्मणाम्) सुखदुःखादिगळं माळ्प कर्मगळ्गे तिषां किं) आ कर्मगळगेनु? (मुक्तत्वमेव) अगल्केयकु (कथम्) एन्तु? (हि) स्फुटवागि (काभ्याम् } आबुबरिंद? (बहिरन्तररूपायाभ्याम्) बाह्याभ्यन्तर कारणंगळिंदं ।
संस्कृत टीका-य: (कर्मणाम् ) ज्ञानापरणादीनां कर्ता (तु) पुन: (स एव) स एव जीवः (तत्फलानाम् ) तत्कर्मफलानां (भोक्ता) अनुभविता । (बहिरन्तरुपायाभ्यामेव) बाह्याभ्यन्तरतपश्चरणोपायाभ्यामेव तिषां) तत्कर्मणां (मुक्तत्वम्) मोक्ष: (हि) स्फुटं स्यात् ।।
उत्थानिका (कन्नड़)-इस प्रकार अनेक धर्मों को, बन्ध-मोक्ष को और उनके फलों को आत्मा ही करता है-यह निर्णय हुआ। तब सांख्य बोलता है'कर्मों का कर्ता आत्मा नहीं है', सौगत (बौद्ध) कहता है '(आत्मा) स्वयंकृत कर्मों का स्वयं भोक्ता नहीं है, उसकी सन्तान ही उनकी भोक्ता है।' मीमांसकों में से एक कहता है कि कर्मों से आत्मा मुक्त नहीं है ।'-इन सबके उत्तरस्वरूप यह श्लोक आया है।
उत्थानिका (संस्कृत टीका)-कर्म का कर्तापना आदि एवं स्वरूप बताने के लिए यह कहते हैं
खण्डान्वय-य:=जो कोई, कर्मणां-कर्मों का, कर्ताकर्ता है, तु और, स एव-वही, तत्फलाना-उनके फलों का, भोक्ता=भोगने वाला है। हि=क्योंकि, बहिरन्तरुपायाभ्या-बहिरंग और अन्तरंग उपायों से, तेषां उन कर्मों का, मुक्तत्वमेव-मुक्तपना ही है।
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