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अमूर्ति:=अमूर्तिक है।
हिन्दी अनुवाद ( कन्नड़ टीका ) :- होता है, कौन (होता है ) ? वह आत्मा, कैसा होता है? अस्तित्व - नास्तित्वरूप स्वभाववाला, किनमें? स्वकीय व परकीय धर्मों में। और फिर किस प्रकार का है? मूर्तिमान् है, किस कारण से ( मूर्तिमान है ) ? ज्ञानस्वरूपी होने के कारण से, और फिर कैसा है ? मूर्तित्व से रहित है, किस कारण से ? रूपादि गुणों से रहित होने के कारण से ।
हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका ) - वह आत्मा आत्मगत ज्ञातृत्व आदि अपने धर्म एवं परगत रूपादि परधर्म- इन दोनों धर्मों के विषयों में विधि अर्थात् अस्तित्व भी और निषेध अर्थात् नास्तित्व- इस प्रकार विधिनिषेध है आत्मस्वरूप जिसके, वह विधि निषेधात्मक होता है। ज्ञानमूर्ति है स्वरूप जिसका, वह बोधमूर्ति, उसका भाव बोधमूर्तित्व है, उससे । मूर्तित्व से जो सहित है, वह समूर्ति है तथा उसके विपरीत रूपादि से रहितपने के कारण मूर्तिरहित भी होता है। इस प्रकार से आत्मा स्वधर्म और परधर्म में सद्रूप एवं असद्रूप होने से मूतांमूर्त होता है - ऐसा अभिप्राय है ।
विशेषार्थ: - वस्तु को मात्र 'सत्' स्वरूप कहने में उसका स्वरूप निर्धारण नहीं हो सकता, वह सर्वात्मक एवं मर्यादाविहीन हो जायेगी; ' अतः वस्तु अपने नियतस्वरूप में ही है, पररूप अथवा स्वरूपविहीन नहीं है ऐसा निश्चय 'नास्ति' धर्म को स्वीकार किये बिना असंभव है। इसीलिए भारतीय दर्शनों में जहाँ भी आत्मा को 'सत्' कहा गया, वहीं 'चित्' एवं 'आनन्द' स्वरूप (सच्चिदानन्दरूप) भी कहा गया; जिसका एकमात्र यही अभिप्राय था कि 'आत्मा' या 'ब्रह्मतत्त्व' चेतन एवं आनन्दरूप में ही 'सत्' है; अन्य पौद्गलिक रूप-रस- अचेतनत्व आदि के रूप में उसे 'सत्' नहीं माना जाय । क्योंकि ज्ञानानन्दरूप के अलावा अन्यरूप से आत्मा को 'सत्' नहीं कहा जा सकता है। किन्तु ऐसा कहते हुए भी ब्रह्माद्वैतवादी 'आत्मा' या 'ब्रह्मतत्त्व' को सर्वथा सत्स्वरूप, सर्वव्यापी अद्वैततत्त्व के रूप में कल्पना करने लगते हैं। उनके मत की समीक्षा करते हुए यहाँ आत्मा को आत्मगत ज्ञातृत्व (जाननहारपना) आदि चेतनधर्मों के रूप में 'विधिरूप' (विद्वमान अस्तिरूप या 'सत्' ) तथा परगत जड़त्व, रूप-रस- गन्धादि रूपों में 'निषेधरूप' (अविद्यमान नास्तिरूप या 'असत् ' ) कहा गया है तथा इस प्रकार अस्ति नास्ति अनेकान्तरूप आत्मा की सिद्धि की गयी
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