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सप्तभंगीनय के प्रकरण में आत्मा की अवाच्यता वस्तुपरक नहीं मानी गयी है, अपितु वह वाणी में दो या अधिक धर्मों का युगवद् कथन करने की सामर्थ्य के अभाव की सूचक है। जबकि यहाँ अवाच्यता वस्तुपरक है। 'वस्तु स्वयं ही वाच्य एवं अवाच्य-दोनों धर्मों को धारण करती है'- यह तथ्य यहाँ बताया गया है। उस वस्तु को स्वभावतः सर्वथा अवाच्य नहीं कहा जा सकता है। स्वामी समन्तभद्र लिखते हैं कि यदि वस्तु को सर्वथा अवाच्य मानोगे, तो 'अवाच्य' शब्द के द्वारा भी वस्तु का परिचय नहीं दिया जा सकता है; अन्यथा वह 'अदाच्य' शब्द के द्वारा वाच्य हो जायेगी। तथा फिर आत्मस्वरूप के प्रतिपादक समस्त शास्त्र एवं प्रवचन नितान्त अनुपयोगी और मिथ्या सिद्ध होंगे। उनको व्यवहार से भी आत्मस्वरूप प्रतिपादन की क्षमता नहीं कही जा सकेगी, जो कि उचित नहीं है। आप्त का हितोपदेशित्व एवं आगम का पूज्यत्व सब 'आत्मा' की वाच्यता पर आधारित है। अत: यदि आत्मा को सर्वथा अवाच्य मान लिया जायेगा, तब उस स्थिति में न तो आप्त उपयोगी रहेंगे, न आगम और न ही तीर्थकरगणघर-श्रुतकेवली आदि से लेकर अन्य आरातीय आचार्यों एवं विद्वानों के उपदेशा किसी काम के रहेंगे। अत: भले ही सांकेतिक एवं प्रयोजनपूरक रूपों में ही सही. आत्मा 'वाच्य' है।
किन्तु इस वाच्यता का अर्थ 'पौद्गलिक शब्द के द्वारा अभिव्यक्ति को प्राप्त होने वाला अमूर्तिक आत्मा है'-ऐसा नहीं मान लिया जाय; अत: आत्मा को 'अवाच्य' श्री माना है। अन्यथा पौदगलिक शब्द के द्वारा आत्मा का स्वरूप सुनकर ही सम्यग्दर्शन हो जायेगा, आत्मा की अनुभूति की कोई आवश्यकता ही नहीं रहेगी।
इस प्रकार यहाँ कथित आत्मा की वाच्यता और अवाच्यता .. दोनों ही अत्यन्त विशिष्ट दृष्टिकोण एवं महत्त्व रखतीं हैं।
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1. आप्तमीमांसा, कारिका 16 | 2. "अवाच्यतैकान्तेऽप्युक्तिनांवाच्यमिति युज्यते' – वही, कारिका 13 ।