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आत्मा की 'ज्ञानप्रमाणता' स्वरूपगत है, ज्ञान की ज्ञेयप्रमाणता' (जानने की शक्ति के अनुसार ) शक्तिपरक है ज्ञेय की लोकालोकप्रमाणता समस्त पदार्थों में प्रमेयत्व गुण के कारण वस्तुपरक है; तथा ज्ञान की 'सर्वमतता' गुण की अपेक्षा शक्तिगत एवं केवलज्ञानपर्याय की अपेक्षा अभिव्यक्तिगत दोनों रूप में है ।
उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आत्मा की सर्वगतता ज्ञानात्मक है, प्रदेश की अपेक्षा नहीं । प्रदेश की अपेक्षा तो समुद्घात की स्थिति को छोड़कर अन्य समस्त अवस्थाओं में प्राप्त शरीर के आकारवाला आत्मा है तथा सिद्ध अवस्था में अन्तिम शरीर से कुछ कम पुरुषाकार' आत्मा के प्रदेशों की स्थिति मानी गयी है। यही अभिप्राय यहाँ 'स्वदेहप्रमितः' पद के द्वारा अभिव्यक्त किया गया है।
इसके साथ ही आत्मा के आकार के विषय में 'आत्मा को वटकणिकामात्र सूक्ष्म' माननेवालों की मान्यता भी स्वतः खण्डित हो जाती है ।
'विश्वव्यापी न सर्वथा इस वाक्यांश में सर्वथा विश्वव्यापी न मानने से अभिप्राय प्रदेशों की संकोच - विस्तार शक्ति एवं समुद्घात अवस्था में लोकप्रमाण तक उनका प्रसार स्वीकार करना तथा सर्वत्र सर्वदा लोकव्यापित्व का निषेध करना है । इस विवेचन से तीन तथ्य सुस्पष्टरूप से अभिव्यक्त होते हैं1. संसारावस्था में जीव प्राप्तशरीर के आकार में होता है, 2. शक्ति की अपेक्षा उसमें लोकप्रमाण व्याप्त होने की सामर्थ्य सर्वदा विद्यमान है और 3. उसकी लोकप्रमाणव्याप्तता मात्र 'समुद्घात' (केवलीसमुद्घात) की अवस्था में ही घटित होती है, अन्यथा नहीं होती है।
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2.
3.
"सर्वं खल्विदं ब्रह्म", छान्दोग्योपनिषद्, 3:14/1 प्रवचनसार, ज्ञानाधिकार गर. 28 |
मूल शरीर को छोड़े बिना कुछ आत्मप्रदेशों का शरीर से प्रयोजनवशात् बाहर निकलना 'समुद्घात' कहलाता है । द्र. राजवार्तिक, 1/20/12 तथा गोम्मटसार जीवकाण्ड 668 ।
4. देहमात्र परिच्छिन्नो मध्यमो जिनसम्मतः । तर्कभाषा, पृ. 153, तथा द्रव्यसंग्रह गा. 10;
5.
6.
पंचास्तिकाय, गा. 32-33 ।
" किंचूणा चरमदेहदो सिद्धा..." द्रव्यसंग्रह ।
यह स्थिति मात्र केवलीसमुद्घात में ही बनती है। द्र. सर्वार्थसिद्धि, 5/8 |
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