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ज्ञान के, सर्वगततः सर्वगतत्व होने से, सोऽपि वह आत्मा भी, विश्वव्यापी विश्वव्यापी है, (किन्तु यह बात), न सर्वथा सर्वथा (एकान्तत:) नहीं है।
हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका)-माना जाता है, कौन? यह आत्मा, कैसा (माना जाता है)? अपनी देह के परिमाणवाला है-ऐसा, कैसा होते हुए भी? - ज्ञान के परिमाण में रहने पर भी, (अगर ऐसा है तो) वह ज्ञान, कैसा है (वह ज्ञान)? समस्त वस्तुओं को जाननेवाला है, इस कारण से वह आत्मा सर्वमत है-ऐसा कहा गया है। योगादिमतावलम्बी की परिकल्पना के अनुसार (अर्थात् जैसा योगादिमतावलम्बी मानते हैं, वैसा) नहीं है।
हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-यह आत्मा, 'च' शब्द से यहाँ किसी प्रकार से' - ऐसा कहना चाहिए. अपनी देह 'स्वदेह' ही है प्रमिति-प्रमाण या परिमाण जिसका, वह स्वदेहप्रमित है-ऐसा (समझना चाहिए)। मात्र ज्ञान ही है परिमाण जिसका, वह ज्ञानमात्र भी ज्ञानसम्मत होता है। उस ज्ञानमात्रत्व के कारण, सब कुछ 'गत' अर्थात् जान लिया है जिसने, वह सर्वगतः होता, पुन: वही (सर्वगत) आत्मा स्वदेह प्रमाण होने से एकान्त से विश्वव्यापी भी नहीं होता है। समुद्घात के अतिरिक्त अन्य अवस्थाओं में आत्मा का कायप्रमाणत्व (तथा) समस्तज्ञेयों को व्यापत करने वाले (जानने वाले) केवलज्ञानस्वरूपी होने से ज्ञानमात्रत्व (इसके) संभव है, अत: कथंचित् व्यापक भी होता है और कथंचित् अव्यापक भी होता है-ऐसा भाव है।
विशेषार्थ:-सभी गमनार्थक धातुओं का ज्ञानार्थकत्व वैयाकरणों ने निर्विरोधरूप से माना है। गम् गच्छ) धातु भी इसका अपवाद नहीं है। 'सर्वगत' शब्द में यही घातु प्रयुक्त है, अत: इस शब्द की दोनों व्युत्पत्तियाँ संभव है - “सर्व गच्छतीति सर्वमतः' (सर्वत्र जाता-व्याप्त हैं, अत: सर्वगत) तथा "सर्वं जानातीति सर्वगतः" (सबको जानता है, अत: सर्वगत-सर्वज्ञ है)। ब्रह्माद्वैतवादी प्रथम व्युत्पत्ति को स्वीकार करते है तथा आत्मा या ब्रह्म को सर्वव्यापी मानते हैं, किन्तु जैनदर्शन में आत्मा का सर्वव्यापकत्व द्वितीय व्युत्पत्ति के अनुसार ज्ञानात्मक माना गया है, प्रदेशप्रसारात्मक नहीं। ज्ञानात्मक सईगतत्व की सिद्धि करते हुए प्रवचनसार में कहा गया है -
"आदा णाणपमाणं, णाणं णेयप्पमाणमुद्दिठें।
णेयं लोयालोयं, तम्हा णाणं दु सव्वगदं ।। अर्थात् आत्मा ज्ञानप्रमाण है, ज्ञान ज्ञेयप्रमाण है; चूंकि ज्ञेय लोकालोक है, अत: ज्ञान सर्वगत है।