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समयसार कलश टीका:- (आत्मा) चेतना लक्षण जीव (व्यक्त:) स्वस्वभावरूप (आस्ते) होता है। कैसा होता है? (नित्यं) त्रिकालगोचर (कर्म) अशुद्धतारूप (कलंकपंक) कलुणता-कीचड़ से (निमल:) सर्वथा भिन्न होता है। और कैसा है? (धुवं) चारों गति में भ्रमता हुआ रह गया है। और कैसा है? (देव:) पूज्य है। और कैसा है? (स्वयं शाश्वत:) द्रव्यरूप ही रिलमान है। और कैसा होता है? (आत्मा) चेतनवस्तु के (अनुभव) प्रत्यक्ष-आस्वाद के द्वारा (एक) अद्वितीय (गम्य) गोचर है (महिमा) बड़ाई जिसकी, ऐसा है।
-(समयसार, कलश 12 की टीका) __ स्वरूपसंबोधन पंचविंशति: (कन्नड़ टीका):- (वक्तव्यः) कहा जाता है (क:) कौन? (सः) वह आत्मा (कै:) किससे? (स्वरूपायैः) स्वरूपादि चतुष्टयों से (निर्वाच्यः) नहीं जाना जाता । (कस्मात्) किस कार से? (परभावत:) पर रूपादि चतुष्टयों से, (तस्मात्) इस कारण से (वाच्य: न) वाच्य नहीं है, (कथ) कैसे? (एकान्तत:) एकान्तरूप से।
-(पद्य 7 की टीका) समीक्षा:- प्रतिप्रश्न शैली दोनों टीकाकारों की समान है, किन्तु कलश टीकाकार ने जहाँ प्रतिप्रश्न अपनी ओर से प्रस्तुत किया है, वहीं महासेन पंडितदेव ने प्रतिप्रश्न मूल में जोड़कर उसकी टीका प्रस्तुत की है। यह बात उपरिलिखित दोनों टीकाओं में गहरे मुद्रित पदों के अवलोकन से स्पष्ट रूप से समझी जा सकती
इसके अतिरिक्त इस टीका में ग्रन्थ के वर्ण्य-विषय के अनुसार उत्थानिकाओं में परिवर्तन लाया गया है। यथा ग्यारहवें पद्य की उत्थानिका में आगे के चार श्लोकों का वर्ण्य-विषय एक होने से समग्र उत्थानिका दी है तथा फिर उन चार श्लोकों में से एक (14वें) में उत्थानिका ही नहीं दी है एवं बारहवें एवं तेरहवें पद्य की स्वतन्त्र उत्थानिकायें दी है। इससे विषयगत वर्गीकरण एवं क्रम समझने में सुविधा होती है।
प्रस्तुत 'कर्णाटकवृत्ति' नामक कन्नड़ टीका की भाषा सरल-सुबोधगम्य कन्नड़ भाषा है, तथापि हड़कन्नड़' (प्राचीन कन्नड़) होने से इसे कुछ क्रियापद
एवं शब्दरूप आधुनिक कन्नड़ के अनुसार नहीं समझे जा सकते हैं। उनको • समझने के लिए हड़े कन्नड़' का ज्ञान अपेक्षित है।
अन्य वैशिष्ट्य:- प्रस्तुत कन्नड़ टीका के प्रारंभ में टीकाकार ने पृथकरूप