________________
:
सहितो मूर्ति: समूर्तिः (पद्य 8 ) – 'इत्यादि ।
इनके अतिरिक्त संस्कृत टीका की एक अन्य विशेषता है टीका के अन्त में भावार्थ देने की । यद्यपि उन्होंने उसे भिन्न-भिन्न नाम दिये हैं, जैसे कि इत्यर्थः (पद्य 1 एवं 3 में ); इति भाव: (पद्य 5, 6, 7, 8, 9, 12, 14, 20, 22, 23, 24, 25 में ). तात्पर्यार्थः (पद्य 4 में ); इति भावार्थ : (पद्य 11, 15, 16, 17 में ); इति अभिप्राय: (पद्य 19, 21 में ); इति तात्पर्य: (पद्य 26 में ) तथा समर्थितमित्युक्तं भवति (पद्य 2 में ) । ये 'भावार्थ' या 'विशेषार्थ' अपने आप में अतीव महत्त्वपूर्ण हैं, क्योंकि इनमें वर्ण्य विषय का स्पष्टीकरण अध्यात्म- दृष्टि से किया गया है तथा टीका में पदव्याख्या- शैली के कारण जो बातें नहीं कही जा सकीं थीं, टीकाकार ने इन विशेषार्थों में उनका स्पष्टीकरण किया है । यद्यपि अधिकांश विशेषार्थ अध्यात्मदृष्टिप्रधान ही हैं; किन्तु द्वितीय पद्य के विशेषार्थ में उन्होंने मतार्थ की समीक्षा भी न्यायशैली में की है
"जीवाभाव वदतां शून्यवादिनां मतं निराकृत्य अप्रतिहतस्याद्वादवादिमतानुसार्युपयोगलक्षण- लक्षितात्मास्तित्वं समर्थितमित्युक्तं भवति ।"
जहाँ 'कर्णाटक वृत्ति' में उत्थानिकाओं में विस्तार एवं न्याय आदि दार्शनिक विशेषतायें भरी हुईं थीं, वहीं संस्कृत टीका में उत्थानिकायें संक्षिप्त एवं विषय की सूचनामात्र प्रदान करती हैं। वे कभी-कभी पिछले पद्य के भावार्थ से जुड़ी हुई भी हैं, यथा द्वितीय पद्य की उत्थानिका में टीकाकार कहते हैं - “ईदृशात्मस्थिति वक्तुमाह । " यहाँ 'ईदृश' पद प्रथम पद्य के विशेषार्थ में कहे गये आत्मस्वरूप का सूचक है
इस टीका में टीकाकार ने स्वतंत्र मंगलाचरण, प्राक्कथन एवं प्रशस्ति लिखी है, जो महत्त्वपूर्ण सूचनाओं से भरी हुई हैं। यथा मंगलाचरण में ग्रन्थ का नाम 'स्वरूपसम्बोधन' तथा ग्रन्थकर्ता का नाम 'अकलंक' स्पष्टरूप से बताया है। तदुपरान्त प्राक्कथन में भी ग्रंथ का एवं ग्रंथकर्ता का इसी तरह उल्लेख करते हुए ग्रंथ रचना का उद्देश्य "स्वस्थ भावसंशुद्धेर्निमित्तं" (अपने भावों की विशेष शुद्धि के निमित्त ) ग्रन्थ की रचना का फल "सकलंभव्यजनोपकारिणं" (सम्पूर्ण भव्यजीवों का उपकार करने वाला), ग्रन्थ का आकार एवं महत्त्व - ग्रंथेनाल्पमनल्पार्थ (ग्रंथ अर्थात् आकार की दृष्टि से संक्षिप्त किन्तु अर्थ की दृष्टि से अगाध ) इत्यादि अति महत्त्वपूर्ण बातें प्राक्कथन में समाहित हैं।
--
XXV