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तथा उनके बाद ग्रन्थकर्ता गणधरदेव हैं, जो कि तीर्थकर के वचनों को द्वादशांगमयी श्रुत के रूप में प्रस्तुत करते हैं । अन्य ग्रन्थकर्ता जो आरातीय आचार्य आदि हैं. वे तो उन्हीं के वचनों को प्रस्तुत करते हैं। जैसे कि एक ही गंगाजल को अलग-अलग घटों में स्थापित किया जाता है; वैसे ही मूल दिव्यध्वनि-कथित द्वादशांगमयी जिनवाणीरूपी गंगा के पवित्र वचनोंरूपी जल को विभिन्न आचार्यों ने विभिन्न ग्रन्थों रूपी घड़ों में भरकर प्रस्तुत किया है। वे अपनी ओर से नया कुछ नहीं कहते हैं। जल तो वही होता है, मात्र घड़ा नया होता है; इसी तरह मूल जिनवचन तो वे ही हैं, मात्र कहने की शैली एवं शब्दयोजना आदि की मौलिकता आचार्यों की होती है। इसीलिए 'दसणपाहुड' की टीका में अन्य आचार्यों के कथनों को तीर्थकर परमात्मा के वचनों का अनुवादरूप' माना गया है
... "अन्यमुनीनामुपदेशस्त्वनुवादरूपो जातव्य:"6 धक्लाकार वीरसेन स्वामी भी लिखते हैं - "तथोपदिष्टमेवानुवदनमनुवाद: 7 अर्थात् सर्वज्ञ परमात्मा के उपदेशों को दुहराना ही अनुवाद है। सम्पूर्ण ग्रन्थ इस रीति से अनुवादरूप हैं। __पंडितप्रवर टोडरमल जी ने भी लिखा है कि "केवली कहया सो प्रमाण है। द्वादशांगश्रुत के धारक गणधरदेव एवं श्रुतकेवलियों की परम्परा में शास्त्ररचना करने से ही आचार्यप्रवर कुन्दकुन्द ने "सुदकेवलीभणिदं" कहकर अपनी ऋजुता एवं लघुता प्रकट की है। कवि पम्प अपने आपको 'कुन्दकुन्द आचार्य के अन्वयरूपी नन्दनवन का तोता' कहते हैं |10 जैसे तोता जो सुनता है, वहीं दुहरा देता है; उसी प्रकार कुन्दकुन्दान्वय में मैंने (पम्प कवि ने) जो कुछ सुना या पढ़ा है, वही दुहरा रहा हूँ, अपनी ओर से कुछ भी मिलावट नहीं कर रहा हूँ। 1. द्र. 'धवला'; 1/1/1, 1/41/10 तघा पंचास्तिकायसंग्रह-तात्पर्यवृत्ति', 1/6/8 | 2. 'तिलोयपण्णत्ति', 1/28-29 । 3. 'धवला', 1/1, 1, 1/40/4 4. प्राकृत-हिन्दी कोष, पृष्ठ 7441 5. कसायपाहुड; 2/1, 22129/14/8 | 6. 'दसणपाहुइ, गाथा 22 की टीका। 7. धवला, 1/1/111, पृ० 351 | 8. मो.मा.प्र., 8/4461 9. समयसार, मंगलाचरण । 10. “कुन्दकुन्दान्वयनन्दनवनशुकं ।''