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Dainik
स्वरूप सांख्य के 'पुरूष' से अत्यधिक साम्य रखता है। अतएव महान् अध्यात्मवादी आचार्य कुन्दकुन्द को भी आध्यात्मिक ग्रंथराज समयसार में भी सांख्य के पुरूष का खंडन कर अध्यात्मदृष्टि से प्रतिपादित शुद्धात्मतत्त्व की वस्तुगत अनेकान्तात्मकता का समर्थन किया है।
सांख्य का ही खंडन यहाँ मूल लक्ष्य नहीं था। अध्यात्मवाद के जोर में कुछ अज्ञानीजन भी द्रव्य और पर्याय को सर्वथा पृथक् मानने लगते हैं; तथा “पर्यायमूढ़ परसमय" की उक्ति का अर्थ है- 'पर्याय का अस्तित्व मानने से भी जिन्हें अन्यमत की आशंका होने लगती है । उनका भी यहाँ निराकरण कर दिया कि अध्यात्म में दृष्टि से पर्याय का मोह छुड़ाने के लिए 'पज्जयमूढा हि परसमया" कहा था, न कि पर्याय को ही निकाल फेंकने या सर्वथा भिन्न मान लेने के लिए। अत: जैनों में छुपे छद्मसांख्यों किंवा निश्चयाभासियों का मिथ्यात्व छुड़ाने के लिए भी यह पद अत्यन्त सार्थक एवं प्रकरणोचित है। ... पर्याय की नित्य परिवर्तनशीलता के कारण उसका चिन्तन करने वाला चित्त भी चंचल ही रहता है, एकाग्र नहीं हो पाता है। तथा एकाग्रचित्त हो विकल्पजाल की निवृत्ति के बिना ध्यान संभव नहीं है और ध्यान के बिना मोक्ष नहीं होगा। अतएव पर्यायदृष्टि छुड़ाने का जोर अध्यात्मवादियों ने दिया है। परन्तु वह पर्याय-निषेध वस्तुगत नहीं था, अपितु प्रयोजन की सिद्धि के लिए ऐसी कहा गया था।
1. वृहदारण्यकोपनिषद्', 2/4/12। 2. 'समयसार' की भाषा वचनिका में भी पं. जयचंद जी छाबड़ा ने ऐसा ही प्रयोग किया है। 3. तत्त्वार्यसूत्र; 2/8। 4. सर्वार्थसिद्धि, 2/8/2711 5. द्र० पंचास्तिकाय गा. 16, 27, 109, 124; प्रवचनसार गा. 35; नियमसार गा. 10;
मूलाचार गा. 5/36; भगवतीसूत्र-2/10; तथा पंचाध्यायी गा. 30 इत्यादि। 6. भावपाहुड, गा. 591 ___ "उत्पाद्-व्यय-प्रौव्ययुक्तं सत्" - तत्त्वार्यसूत्र, 5/30/
समयसार, गा. 116 से 125 तक । 9. प्रवचनसार, गाथा 93 |
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