Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 76
________________ (और) अभिन्नो न= सर्वधा अभिन्न भी नहीं है। कथंचन भिन्नाभिन्नः = कथंचित् भिन्न और अभिन्न-उभयस्वरूप है । पूर्वापरीभूतं पूर्वापरीभूत (जो ) ज्ञानम् = ज्ञान है), सो= वही, अयम् = यह आत्मा = आत्मा ( है ) - इति = ऐसा कीर्तितः = कहा गया है । हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका) - विद्यमान है, कौन ? वह आत्मा, कैसा है वह आत्मा? ज्ञान-दर्शनोपयोग से युक्त है, वह और कैसा है? कारण कार्यरूप से परिणमित हो रहा है। किस प्रकार से ? क्रमानुगत रूप से; उस कारण से पूर्व आकार का विनाश, उत्तर (नवीन) आकार की उत्पत्ति और दोनों में द्रव्यत्व की स्थिति के रहने के कारण से और किस प्रकार का है? इन्द्रियों के ज्ञान का 1 विषय नहीं है। और किस प्रकार का है? स्वसंवेदन ज्ञान के गोचर है, और किस प्रकार का है? जिसका आदि-अन्त नहीं है ऐसा है । हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका ) - ज्ञान से अर्थात् निजधर्मरूप ज्ञान से जीव पृथक नहीं है और ज्ञान से अभिन्न भी नहीं है। किसी प्रकार ( अपेक्षा) से ज्ञान से ( आत्मा ) भिन्न भी है और अभिन्न भी है । ज्ञेय की अपेक्षा जो पूर्व भी है, अपर भी है; वह पूर्वापर है ऐसा पूर्वापर जो नहीं है, वह अपूर्वापर है; अपूर्वापर इस समय पूर्वापर हो गया है। यही पूर्वापरीभूत ज्ञान ही यह चैतन्यस्वरूप आत्मा है – ऐसा प्रतिपादित किया गया है। इस कारण से गुण गुणी के द्रव्यकृत भेद के रहितपने से ( वह आत्मा ) ज्ञान से अभिन्न है और वैसा होते हुए भी गुण-गुणी-ऐसे विकल्प (भेद) रूप से कही जाने वाली संज्ञा आदि के भेद से ज्ञान से भिन्न भी होता है यह तात्पर्यार्थ है । - विशेषार्थ - प्रत्येक द्रव्य में अनन्तगुण होते हैं और ये गुण दो तरह के होते हैं- सामान्य गुण और विशेष गुण । सामान्य गुण सभी चेतन-अचेतन द्रव्यों में समानरूप से पाये जाते हैं, अतः उनके आधार पर किसी भी द्रव्य का विशिष्ट स्वरूप नहीं जाना जा सकता है। इसी प्रकार आत्मा में पाये जाने वाले अस्तित्व प्रमेयत्त्व-प्रदेशत्व आदि सामान्यगुणों के आधार पर आत्मा को 'द्रव्य' रूप में तो समझा जा सकता है; किन्तु उसे चेतनाविशिष्ट चेतनद्रव्य के रूप में इनके कारण नहीं कहा जा सकता है। चूंकि चेतना का स्वरूप ही दर्शन - ज्ञान प्रधान है "दर्श - ज्ञानमय चेतना, आतमधर्म बखानि": ' अतः इन प्रमुख चेतनगुणों के अतिरिक्त अन्य गुणों के आधार पर आत्मा को 'चैतनद्रव्य' के रूप में परिभाषित नहीं किया जा सकता है इस अभिप्राय से यहाँ आत्मा को 'अचेतन' कहा है। साथ ही इन प्रमेयत्वादि अवेतनगुणों के विद्यमान रहते हुए भी ज्ञान दर्शन आदि 14

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