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चेतनगुणों के वैशिष्ट्य से आत्मा 'चेतन' रूप भी यगपत बना हुआ है, उसमें कोई क्षेत्र या कालगत भेद नहीं है।
आत्मा का चेतनाचेतनात्मकत्व अनेकान्तदृष्टि से बतलाकर वैशेषिक की इस मिथ्यामान्यता का निराकरण कर दिया है कि 'आत्मा स्वरूपत: अचेतन द्रव्य है तथा समवाय-सम्बन्ध के द्वारा उसमें चेतना आ जाने से उसे चेतन' कहा जाता है।' आत्मा को स्वरूपत: जड़ मानकर चेतना के समवाय से चेतन कहने वाले वैशेषिकों का आत्मा वस्तुत: जड़ ही रहेगा; ज्ञानी नहीं हो सकता है। आचार्य कुन्दकुन्द लिखते हैं कि अन्य किसी समवाय-द्रव्य के सहयोग से आत्मा ज्ञानी नहीं है, वह स्वरूपतः ही ज्ञानी है। ज्ञान के साथ आत्मा का तादात्म्य है।
आचार्य विद्यानन्दि स्वामी मे वैशैषिकों की समवायकल्पना का निराकरण करते हुए लिखा है कि 'समवाय एक नित्य-व्यापक पदार्थ है, अत: चेतना का समवाय सम्बन्ध जैसे आत्मा के साथ होगा, वैसे ही आकाशादि के साथ भी समवाय के रहने के कारण आकाश आदि को भी चैतन्यवान् मानना होगा तथा आकाश को भी “मुझमें ज्ञान है" - ऐसी प्रतीत माननी पड़ेगी। किन्तु "मैं चेतन हूँ" - ऐसी प्रतीति मात्र आत्मा को ही होती है, अत: आत्मा ही कथंचित् चेतनस्वरूप है।
समवाय की परिकल्पना में 'अनवस्था दोष' आता है, क्योंकि आत्मा चेतना के समवाय से चैतन्यवान् हुआ, तो चेतना किसके समवाय से चेतन हुई? यह प्रश्न अनवस्था का उपस्थित करता है। अत: अग्नि के उष्ण गुण की तरह आत्मा चैतन्यस्वरूप भी स्वभावत: है, समवाय से नहीं है।'
1. कविवर जयचन्दकृत 'दारहभावना', धर्मभावना। 2. कार्तिकेयानुप्रेक्षा, 178। 3. पंचास्तिकाय, गाथा 491 4. तत्त्वार्थराजवार्तिक, 1/1/91 5. तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, 196-1981 6. वही, 199-203 तथा षड्दर्शनसमुच्यय, कारिका 49; स्याद्वादमंजरी, का. 8। 7. तत्त्वार्थराजवार्तिक 1/1/11।
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