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चेतनाचेतनात्मक है।
हिन्दी अनुवाद (कन्नड़ टीका)-'आत्मा अचेतन है'-ऐसा व्यवहारनय की अपेक्षा से कहा जाता है। किन कारणों से? धर्मों से, किन प्रकार के धर्मों से? प्रमाणविषयत्व (प्रमेयत्व), अस्तित्व आदि अचेतन द्रव्यों में (भी) रहने वाले साधारणधर्मों (सामान्यगुणों की अपेक्षा) से। (तथा) आत्मा चैतन्यस्वरूपी है. किस कारण से? ज्ञानदर्शनादि असाधारणधर्मों (विशेष गुणों) के रहने से, इन कारणों से (वह आत्मा) चेतनाचेतन व्यवहार का विषय कहा गया है। ___ हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)-प्रमेयत्व-अस्तित्व-नित्यत्व-वस्तुत्व-द्रव्यत्व आदि अनेक साधारणधों से अभिन्न आत्मा अचेतनस्वरूप है (और) असाधारण ज्ञानदर्शन गुणों से चिच्चैतन्य आत्मस्वरूप जिसके है, वह चिदात्मक (चैतन्यस्वरूप) है। इस कारण से चेतन और अचेतन- ऐसा चेतनाचेतन, वे दो हैं आत्मस्वरूप जिसके, वह 'चेतनाचेतनात्मक' है। इस प्रकार अन्य वस्तु में और अपने (आत्मा) में विद्यमान साधारण और असाधारण मृणों की अपेक्षा से अचेतनात्मक और चेतनात्मक भी होता है, इसलिए आत्मा के चेतनाचेतनात्मकत्व प्रतिपादित किया गया है-ऐसा अभिप्राय है।
विशेषार्थ-ज्ञानादि आदिमक गुणों एवं गुणी द्रव्य आत्मा की सर्वधा अभिन्नसत्ता है या इनमें भिन्नात्मकता भी है - यह वस्तुगत विवेचन यहाँ किया गया है। भेदकल्पनासापेक्ष अशुद्धद्रव्यार्थिकनय आत्मा और ज्ञानादि में गुण-गुणी के भेद का प्रतिपादन करता है। किन्तु भेदकल्पना-तिरपेक्ष शुद्ध-द्रव्यार्धिकनय गुण-गुणी आदि के भेद की विकल्पना का निषेध करता है। अत: भेद एवं अभेद दोनों के प्रतिपादक दो नय विद्यमान हैं तथा इन नयों की शुद्धता एवं अशुद्धता का आधार भी वस्तुगत न होकर प्रयोजनगत है। जो सुख का साधन बने, वह शुद्ध; और जो दु:ख का साधन बने, वह अशुद्ध । वस्तुगतरूप से देखा जाये तो अभेदरूप एकत्व एवं गुण-गुणी भेदरूप अनेकत्व - ये दोनों एक साथ निर्विरोधरूप से वस्तु में है।
'ज्ञानं पूर्वापरीभूतं का अर्थ है कारण समयसार एवं कार्य समयसार' रूप बोनों स्थितियों में ज्ञान ही विद्यमान है, व्याप्त है; अत: ज्ञान का अन्वय होने से ही उन कारण एवं कार्यरूप दोनों स्थितियों में यह ज्ञान 'सो अयम् आत्मा' - इस प्रकार से प्रत्यभिज्ञान' का कारण बनता है। जब बौद्धों ने कारणतत्त्व एवं कार्यतत्त्व की नितान्त भिन्नता' क्षणिकवाद के कारण प्रतिपादित की, तो