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खण्डान्वय-य: जो, कर्मभिः कर्मों की अपेक्षा से, मुक्त-मुक्तरूप है, (तथा) संविदादिभि:=ज्ञानादि (स्वकीय) गुणों से, अमुक्त अमुक्त-अभिन्नरूप है, एकरूप:-(ऐसा) मुक्तामुक्त/भिन्नाभिन्न एकरूपवाला है। तम्=उस, ज्ञानमूर्तिम् ज्ञानमूर्ति, अक्षयम्=अक्षय/ अविनाशी, परमात्मानम्=परमात्मा को. नमामिन्नमस्कार करता हूँ।
हिन्दी अनुवाद (कन्नड टीका)-(मैं) नमस्कार करूँगा; किसको? उनको, कैसे हैं वह? समस्त वस्तुओं में श्रेष्ठरूप हैं। और फिर किस प्रकार के हैं? जिनका कभी नाश नहीं हो ऐसे हैं; और किस प्रकार के हैं? ज्ञानस्वरूपी हैं जो; और किस प्रकार के हैं? मुक्त और अमुक्त-एकरूप वाले हैं। किनसे मुक्तरूप हैं? ज्ञानावरणादि अष्ट कर्मों से। और किनसे अमुक्तरूप है? ज्ञानादि गुणों से अमुक्तरूप अर्थात् युक्त हैं।
हिन्दी अनुवाद (संस्कृत टीका)---जो कर्मों से अर्थात् ज्ञानावरणादि अष्टविध कर्मों से, ज्ञातादि से अर्थात् निजस्वरूप ज्ञानादि गुणों के समूह से क्रमश: मुक्त और अमुक्त एकरूप हैं। एक ही है स्वरूप जिसका, वह एकरूप है. ऐसा मुक्तामुक्तकरूप है जो ज्ञाममूर्ति अर्थात् ज्ञान ही है मूर्ति (स्वरूप/आकार) जिसका वह ज्ञानमूर्ति है; 'अक्षय' अर्थात् अनन्तचतुष्टय स्वरूप के उत्पन्न हो जाने से क्षय-विनाश रहितपने के कारण जो अक्षय है, उस परमात्मा को जो परम (उत्कृष्ट) भी है आत्मा भी है; उस परमात्मा को नमस्कार करता हूँ।
विशेषार्थ-यह पद्य मूलग्रन्थकार का 'मंगलाचरण' है। इसमें अकलंकदेव ने चार विशेषणों से युक्त 'परमात्मतत्त्व' को नमस्कार कर 'इष्टदेवता-समरण' एवं 'नास्तिकत्व-परिहार' - इन दो उद्देश्यों की पूर्ति की है।
आत्मा के अवस्थागत तीन भेद माने गये हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा ।' किन्तु यहाँ प्रयुक्त परमात्मा' पद इन अवस्थागत भेदों में वर्णित परमात्मा का वाचक न होकर निज त्रिकाली शुद्धात्मा, जो कि साधक जीव के लिए तीनों लोकों एवं तीनों कालों में सर्वोत्कृष्ट परम उपादेय पदार्थ है, उसे 'परमात्मा' शब्द के द्वारा अकलंकदेव ने बताया है। दोनों टीकाकारों ने भी इसी अर्थ की पुष्टि की है। निज शुद्धात्मतत्व की आराध्यदेव के रूप में वन्दना कर मंगलाचरण करने की परम्परा अध्यात्मग्रन्थों में रही है। 'समयसार' की-'आत्मख्याति' टीका के 'मंगलाचरण' में आचार्य अमृतचन्द्र ने "नम: समयसाराय" कहकर शुद्धात्मतत्त्व की वन्दना की है।