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इस परमात्मारूपः शुद्धात्मतत्त्व के तीन विशेषण ग्रंथकार ने दिये हैं - (1) कर्मों से मुक्तरूप एवं संविदादि से अमुक्तरूप एक, (2) अक्षय और (3) ज्ञानमूर्ति। इनका वैशिष्ट्य निम्नानुसार है - (1) 'कर्मोपाधिनिरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नप' की अपेक्षा आत्मा त्रिकाल ज्ञानावरणादि आठ कर्मों से मुक्त परिशुद्ध तत्त्व है। चूंकि बन्ध का कारण स्निग्ध (चिकनापन) एवं रूक्ष (रूखापन) गुण कहे गये हैं - "स्निग्घरूक्षत्वाद्बन्ध: ।"3 चूंकि ये दोनों गुण पुद्गल द्रव्य के हैं, अत: आत्मा में इनका नितान्त अभाव होने से वस्तुगतरूप से भी आत्मा कर्म से बंध ही नहीं सकता है। अत: आत्मा कर्म से मुक्त ही है - यह सार्थक कथन है।
वैशेषिक लोग आत्मद्रव्य को ज्ञानादि गुणों से वस्तुत: भिन्न मानते हैं तथा 'समवाय' नामक पदार्थ/सम्बन्ध से आत्मा का ज्ञानवान् होना स्वीकार करते हैं। उनकी इस कल्पना का निराकरण कर "आहमेक्को खलसद्धो दंसण-णाणमओ सदारुवी"4 - इस आगमवचन की पुष्टि करते हुए आत्मा को ज्ञानादि चेतनगुणों से स्वरूपत: अभिन्न बताया है। ___यह भ्रम न हो जाये कि कर्मों से भिन्न कोई अन्य आत्मा है, तथा ज्ञानादि से अभिन्न कोई अन्य आत्मा है; अतएव 'एकरूप' पद का सुविचारित प्रयोग किया गया है। 12) बौद्धों में 'मणिका: सर्वसंस्कारा:' की मान्यता के अनुसार समस्त पदार्थों को मणभंगुर माना गया है, उनकी इस एकान्त मिथ्यामान्यता की समीक्षा करते हुए यहाँ आत्मा के साथ 'अक्षय' (अविनाशी) विशेषण का प्रयोग किया गया है। यद्यपि पर्यायदृष्टि से क्षणभंगुरता जैनदर्शन ने भी स्वीकार की है, किन्तु द्रव्यदृष्टि से उसने सभी पदार्थ को अविनाशी ही माना है। तथा 'अक्षय' स्वरूप का विश्वास हुये बिना आत्मानुभूति का पुरूषार्थ ही प्रवर्तित नहीं होता है। अत: 'अक्षय' कहकर पर्यायों की क्षणभंगुरता से परे अपरिवर्तनशील ध्रुव नित्य आत्मतत्त्व है। - यह सन्देश साधक जीव को संशपरहित होकर पुरुषार्थ करने के लिए दिया गया है। (3) यद्यपि आत्मा में अस्तित्व आदि सामान्यमुण, अनेकों धर्म एवं शक्तियाँ हैं". किन्तु आत्मा का पहिचान, उसका वैशिष्ट्य, उसका गौरव 'ज्ञान' से ही है। अतएव युगप्रधान आचार्य कुन्दकुन्द ने भी स्पष्टरूप से घोषित किया - "आदा णाणपमाणं" - अर्थात् आत्मा ज्ञानप्रमाण है; यानि जितना ज्ञान स्वभाव है, उतना ही आत्मा है। गुणभेद के विकल्पों से निवृत्ति एवं आत्मा को निर्गुणात्मकता