Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 65
________________ संस्कृत टीकाकार का मंगलाचरण स्वरूपसम्बोधनाख्यग्रन्थस्यानम्य तन्मुनिम् । रचितस्याकलङ्केन वृत्तिं वक्ष्ये जिनं नमिम् ।। खण्डान्वय-तन्मुनिम् जिनं नमिम्-उन मुनि जिनेन्द्र नमिनाथ स्वामी को, आनम्यनमस्कार करके, अकलड् केन=श्रीमद् भट्ट अकलंकदेव के द्वारा, रचित्तस्यरचे गये, स्वरूपसम्बोधनाख्यग्रन्थस्य= स्वरूपसम्बोधन' नामक ग्रन्थ की, वृत्तिवृत्ति (टीका) को, वक्ष्ये कहूँगा। _ विशेषार्थ-मंगलाचरण के कई उद्देश्य माने गये हैं; उनमें से प्रमुख हैं - (1) इष्टदेवता अनुस्मरण, (2) कृतज्ञताज्ञापन, (3) उद्देश-कथन (4) ग्रंथ एवं ग्रंथकार का परिचय इत्यादि। संस्कृत टीकाकार ने प्राय: सभी का अनुपालन किया है। नमिनाथ तीर्थंकर को नमस्कार करके 'इष्टदेवता स्मरण' एवं 'कृतज्ञता-ज्ञापन ' - इन दोनों का पालन किया है। “अकलंकेन रचितस्य स्वरूपसम्बोधनाख्य ग्रंथस्य"-इस वाक्यांश के द्वारा मूलग्रंथकर्ता एवं ग्रंथ के नामकरण की सूचना दी है तथा “वृत्तिं वक्ष्पे"- इन पदों से उद्देश-कधन' किया गया है। ग्रंथ के प्रारम्भ, मध्य और अन्त में तीन बार 'मंगल' करने का विधान आगमनन्थों में किया गया है, और उनका फल निम्नानुसार बताया है - "शास्त्र के प्रारम्भ में 'मंगल' करने से शिष्यलोग 'शास्त्र के पारगामी' होते हैं, मध्य में 'मंगल' करने से निर्विघ्न विद्या' की प्राप्ति होती है और अन्त में 'मंगल' करने से 'विद्या का फल' प्राप्त होता है। धवलाकार ने भी त्रिविध मंगल का फल यही माना है, मात्र 'आदिमंगल' का फल 'अध्येता-श्रोता-वक्ता को आरोग्य लाभ' बताया है। यद्यपि इस त्रिविध मंगल की परम्परा का पालन सभी शास्त्रकारों ने नहीं किया है, किन्तु ग्रन्थ के आरम्भ में 'मंगल' करने की परम्परा का पालन प्राम: सभी शास्त्रकारों ने किया है। यहाँ भी 'आदि मंगल' के रूप में यह पद्य आया है तथा 'अन्त्य मंगल' के रूप में अन्तिम दो पद्य ('भट्टाकलंकचन्द्रस्य......' तथा 'भट्टाकलंक-देवैः......') संस्कृत टीकाकार ने दिये हैं। वृत्ति' - सामान्यतया 'वृत्ति' एवं 'टीका' ये दोनों शब्द पर्यायवाची' भी माने जाते हैं। आचार्य यतिवृषभ के अनुसार 'सूत्र' के विवरण को वृत्ति या 'टीका' कहा गया है। जिनागम में मूलसूत्रकर्त्ता तो सर्वज्ञदेव तीर्थकर परमात्मा को माना गया है

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