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भिन्नता के कारण माना गया है। तथा समवाय सम्बन्ध से इन गुणों के औपाधि - -के सन्निधान से उसे औपचारिकरूप से चेतन कहा गया है। अतः वैशेषिकों की इस समवायपरक मान्यता का खंडन अकलंकदेव ने ग्रन्थ के चौथे पद्य (प्रमेयत्वादिभिधर्मैः ) में किया गया है।
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(ग) ब्रह्माद्वैतवादमत की समीक्षा - "सर्व खल्विदं ब्रह्म" अर्थात् यह सम्पूर्ण चराचर जगत् ब्रह्ममय है ऐसी ब्रह्माद्वैतवादियों की मान्यता है । समस्त भेद एवं नानात्व को वे मायारूप मानकर अज्ञानजन्य कहते हैं। क्योंकि वे जगत् में एक ब्रह्म की ही सत्ता मानते हैं; दूसरे किसी भी पदार्थ की स्वीकृति उनके ब्रह्म की अद्वैतता खंडित कर देगी, इस कारण उन्होंने ब्रह्म के अतिरिक्त किसी पदार्थ की सत्ता ही नहीं मानी है। उनकी इस मान्यता की समीक्षा करते हुए अकलंकदेव ने आत्मा की एकानेकरूपता का निरूपण किया है। वे कहते हैं कि घटज्ञान-पटज्ञान आदि अनेक प्रकार के ज्ञानों के कारण आत्मा को अनेकरूप कहा जाता है तथा उन सब में व्याप्त एक चेतना के कारण वह आत्मा एकरूप ही है; इस प्रकार अनेकान्तदृष्टि से आत्मा में एकपना और अनेकपना दोनों है, मात्र एकत्व ही नहीं है। (पद्य 6 )
(घ) मीमांसकमत समीक्षा गीमांसक आत्मा के बारे में कहता है कि आत्मा कभी भी कर्मों से मुक्त नहीं हो सकता है। उसकी समीक्षा करते हुए आचार्य अकलंकदेव ने दसवें पद्य में कहा है कि 'अन्तरंग एवं बहिरंग तप आदि साधनों से आत्मा कर्मजंजाल से अवश्य मुक्त हो सकता है, यह मुक्तत्व वस्तुत: तो उसका स्वभाव ही है । '
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(ङ) सांख्यमत समीक्षा सांख्य की मान्यता है कि 'आत्मा ( पुरुष ) कूटस्थ नित्य तत्त्व है, वह न तो कर्मों का कर्त्ता है और न ही उसे फलों को वह भोगता है ।' क्योंकि यदि वह क्रियायें मानें तो वह आत्मा एकान्ततः नित्यरूप नहीं माना
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'जा सकता है। इसका निराकरण करते हुए अकलंकदेव ने दसवें ही पद्य में स्पष्ट किया है कि आत्मा कर्मों का अपने अज्ञानभाव के कारण कर्ता भी है और उन कर्मों के फल को भोगता भी है। अतः आत्मा कूटस्थ नित्यरूप नहीं माना जा सकता है।
(च) यौगमत समीक्षा - आत्मा के स्वरूप के सम्बन्ध में योगमतावलम्बी मानते हैं कि आत्मा वटकणिकामात्र सूक्ष्म है, उनका निराकरण करते हुए ग्रंथकर्त्ता ने पाँचवें पद्य में उसे स्वदेहप्रमाण बताया है। अपनी संकोच विस्तार शक्ति के कारण
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