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जो आत्मस्वरूपविषयक सैद्धान्तिक विवेचन किया, उसकी पर्यालोचना करते हुए अनुकूल या प्रतिकूल प्रत्येक परिस्थिति में यथाशक्ति राग-द्वेष से रहित आत्मतत्त्व की भावना करना चाहिए । अर्थात् सैद्धान्तिक विवेचन पाण्डित्य-प्रदर्शन के लिए नहीं था, बल्कि जब तक आत्मस्वरूप में बारे में भ्रामक जानकारियाँ रहेंगी, तो स्वरूप का निर्णय ही सही रूप में नहीं हो सकेगा - यह उसके वर्णन का मूल लक्ष्य था। अत: पाठक/शिष्य भी इस ग्रन्थ में आत्मा के सैद्धान्तिक विवेचन को पाण्डित्य-प्रदर्शन की उपयोगी सामग्री नहीं मान लें-इस निमित्त यहाँ अकलंकदेव को स्पष्ट करना पड़ा कि इस विवेचन को समझकर प्रत्येक परिस्थिति में शक्ति अनुसार वीतराग आत्मतत्त्व की भावना निरन्तर करनी ही चाहिए। वस्तुत: यहीं से स्वरूप को संबोधन प्रारम्भ होता है। इसकी अनिवार्यता का औचित्य सिद्ध करते हुए वे आगे (पद्य 17) लिखते हैं कि आत्मस्वरूप की भावना से चित्त को निर्मल करना अत्यन्त आवश्यक है, अन्यथा चित्त कषाय परिणामों से रंमा रहेगा और इसके फलस्वरूप शुद्धात्मा के बारे में शुष्क क्षयोपशम ज्ञान के द्वारा कितना ही निर्णय कर लिया जाये; किन्तु उस निर्मल आत्मतत्त्व की उपलब्धि कभी भी नहीं हो सकेगी। इसकी सिद्धि (चित्त की कषायरञ्जितता दूर करने) के लिए वे जयत् के प्रति अतिमोहासक्ति छोड़कर उदासीन परिणामों के अवलम्बनपूर्वक आत्मतत्त्व की चिन्तन-प्रक्रिया में संलग्न होने की प्रेरणा पद्य 18 में देते हैं। चूंकि आत्मतत्त्व की ही भावना हो, अन्य विकल्प हावी न हो जायें - इसके लिए आवश्यक है कि यह कार्य निर्णयपूर्वक हों; इसलिए ग्रन्थकार ने पद्य 19 में स्पष्ट निर्देश दिया कि हेयरूप (आस्त्रवादि) तत्वों एवं उपादेयरूप आत्मतत्त्व के बारे में तात्त्विकरूप से निर्णय करके अन्य ज्ञेयरूप एवं हेयरूप तत्त्वों का आलम्बन छोड़कर निज परम उंपादेय तत्त्व का आलम्बन ग्रहण करना चाहिए। यहाँ पर यह समस्या आती है कि कुछ नवशिक्षित अति उत्तावले हो जाते हैं और कहते हैं कि "इतना सब कुछ तो कर लिए, किन्तु अभी तक आत्मस्वरूप का प्राप्ति क्यों नहीं हुई; आत्मानुभव क्यों नहीं हुआ?" उनको दृष्टिगत रखते हुए अकलंकदेव आगामी दो पद्यों (पद्य 20-21 में) सावधान करते हैं कि "हे भव्य! तुम आत्मस्वरूप की प्राप्ति के बारे में अधिक तृष्णा (उतावलापन) मत करो, क्योंकि यह तृष्णा भी तुम्हें मोक्षप्राप्ति में बाधक हैं। जिसकी मोक्ष के विषय भी आकांक्षा नहीं होती है, शांतभाव से जो समस्त इच्छाओं का निरोध करता हुआ आत्मध्यान करता है; वही मोक्ष को समझ सकता हैं, एवं वही मोक्ष का प्राप्त कर सकता है। अत: हे हितचिन्तक तुम किसी भी विषय में (अतिगृद्धतारूप) इच्छा मत रखो।''
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