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ग्रंथकार एवं टीकाकारों की सुन्दर युति स्वरूप का सम्बोधन' करने में समर्थ रही है।
स्वरूपसम्बोधन विषयक अन्य ग्रन्थ - प्राय: शास्त्रों की रचना भव्य जीवों को सम्बोधित करने के लिए, उन्हें सन्मार्ग पर लगाने के लिए की गयी है। किन्तु आत्मविशुद्धि के लिए आचार्यों ने ग्रन्थरचना-जैसे प्रयोग कम ही किये हैं। अकलंकदेव से पहिले छठवीं शताब्दी ई० के आचार्य योगीन्द्रदेव ने 'योगसार' नामक अपभ्रंशभाषायी ग्रंथ की रचना स्व-संबोधन के लिए की थी। वे लिखते हैं - "अप्पा संबोहण कया दोहा इक्कमणेण" अर्थात् 'अपने आपको संबोधित करने के लिए मैंने (योगसार के) दोहों की एकाग्रचित होकर रचना की है।' इस ग्रंथ में वस्तुत: योगीन्द्रदेव ने परमात्मप्रकाश आदि ग्रंथों में प्रभाकर भट्ट नामक शिष्य को समझाये गये आत्मतत्त्व का भावनात्मक वर्णन अपने आपको सम्बोधित करने या स्वगत-कथन शैली में किया है। अपभ्रंश साहित्य में ही पन्द्रहवीं-सोलहवीं शताब्दी ई० में एक 'अप्पसंबोहकव' नामक एक अन्य रचना प्राप्त होती है। इसका अन्य नाम ग्रंथकर्ता ने णिय संबोह' भी दिया है। किन्तु इसमें आत्मसंबोधन जैसी विषयवस्तु एवं वर्णनशैली न होकर दूसरे जीवों के लिए जैनधर्म के आचारपरक सिद्धान्तों को सरल शैली में स्पष्ट किया गया है।
स्वरूपसम्बोधन-पञ्चविंशति' नामक यह रचना अपनी मौलिकता, संक्षिप्त होते हुए भी अर्थगौरव से युक्त होने, विषयान्तर के उल्लेख से रहित होने; सैद्धान्तिक एवं भादनापरक-दोनों पक्षों से समन्वित होने से अपना विशिष्ट स्थान रखती है तथा भाषा, शैली एवं विषयचपन की दृष्टि से भी उक्त दोनों ग्रन्थों से इसकी विशेषता स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती है।
- डॉ० सुदीप जैन
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