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आत्मा जैसा शरीर मिलता है, तदनुसार ही छोटे-बड़े आकार में आ जाती है। (छ) सौगत (बौद्ध) मत समीक्षा - अकंलकदेव ने इस ग्रन्थ में आत्मा के स्वरूप विषयक सैद्धान्तिक विवेचन के प्रसंग में बौद्धों की आत्मा विषयक मान्यताओं का सर्वाधिक निराकरण किया है। बौद्धों के दो वर्ग हैं। 1. हीनयान और 2. महायान । हीनयान वाले बौद्धों के दो ही सम्प्रदाय हैं - वैभाषिक और सौत्रान्तिक तथा महायान वाले बौद्धों के भी दो समुदाय हैं- योगाचार और माध्यमिक | इनमें से वैभाषिक बौद्ध क्षणिकवादी हैं, वे प्रत्येक वस्तु की चारक्षणमात्र स्थिति मानते हैं- "चतुःक्षणिक वस्तु" । वे चार क्षण हैं- जन्म, स्थिति, जरा और विनाश । आत्मा को भी ये ऐसा ही क्षणिक मानते हैं। इनकी समीक्षा उस ग्रन्थ के पद्य क० । में करते हुए अकलंकदेव ने आत्मा के क्षणिकान्त का निषेध करते हुए आत्मा को मतिज्ञानादि पर्यायों की अपेक्षा क्षणभंगुर तथा अनंतगुणात्मक द्रव्यपक्ष की अपेक्षा नित्य / अविनाशी तत्त्व बताया है। सौत्रान्तिक बौद्ध आत्मा से ज्ञान सन्तति का उच्छेद (छूट जाना) हो जाने को ही मोक्ष मानते हैं - "ज्ञानसंतानोच्छेदो मोक्षः । " उसकी इस मान्यता का निराकरण करते हुए इस ग्रन्थ के पद्म क्र० 4 में आत्मा को कभी भी ज्ञान से शून्य नहीं माना है। योगाचारवादी बौद्ध सम्पूर्ण जगत् को ज्ञानाकार मात्र मानते हैं - "विज्ञानमात्रमिदं भुवनम् ।" बाह्य वस्तुरूप किसी भी पदार्थ की वे सत्ता नहीं मानते हैं । इसी क्रम में वे आत्मा को भी ज्ञान प्रतिभासमात्र मानते हैं, न कि पारमार्थिक वस्तुविशेष । बौद्धों की इस मान्यता की समीक्षा करने हुए अकलंकदेव ने लिखा है कि आत्मा अनादि अनन्त उपयोग लक्षण, उत्पाद-व्ययधौव्यमुक्त पारमार्थिकवस्तु है'। उसका अपना स्वचतुष्टय ( स्वद्रव्य- स्वक्षेत्र स्वकाल एवं स्वभाव ) स्वतंत्ररूप से है । वह प्रतिभासमात्र तत्त्व नहीं है । (पद्य 8 ) | माध्यमिक बौद्ध शून्यवादी है- “शून्यमिदम्" । आत्मा को भी वे ज्ञानादिगुण- शून्य तत्त्व मानते हैं; उनकी इस मान्यता की समीक्षा करते हुए आत्मा को अनन्तधर्मात्मक तत्त्व इस ग्रन्थ में प्रतिपादित किया गया है I
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आत्मा के इस स्वरूप निरूपण विषयक सैद्धान्तिक विवेचन के प्रकरण, जो कि इस ग्रन्थ का पूर्वार्द्ध भाग है, में आचार्य भट्टाकलंकदेव ने अनेक विश्व एकान्त मान्यताओं का निराकरण करते हुए अनेकान्तात्मक आत्मस्वरूप की विवेचना की है। जैसे कि प्रथम पद्य में मुक्तैकान्त ओर अमुक्तैकान्त का निषेध करते हुए आत्मा को कर्म से मुक्त ( भिन्न) और ज्ञानादि गुणों से अमुक्त (अभिन्न) मुक्तामुक्त अनेकान्तरूप बताया है। द्वितीय पद्य में ग्राह्यैकान्त एवं अग्राह्यैकान्त का निराकरण करते हुए आत्मा को स्वसंवेदनज्ञान से ग्राह्य एवं इन्द्रियज्ञान से अग्राह्य इस
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