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अभिव्यक्ति की गयी है, उसे जो व्यक्ति विनयपूर्वक सुनेगा, पढ़ेगा या सुनायेगा; उसके लिए 'स्वरूपसम्बोधनपञ्चविंशति' के द्वारा परमात्मपद की प्राप्ति होगी।
ग्रन्थ का नामकरण भी आध्यात्मिक गहराई को बताता है। प्रतीत होता है कि भट्ट अकलंकदेव ने संभवत: योगीन्द्रदेवकृत योगसार' ग्रन्थ में योगीन्द्रदेव (छठवीं शताई.) के आत्मकथ्य "अप्पासंबोहण कया दोहा एक्कमणेण" (अपने आपको सम्बोधनार्थ मैंने इन दोहों की एकाग्रचित्त होकर रचना की है) को इस ग्रन्थ के नामकरण का आदर्शवाक्य माना होगा। दुनियाँ को सुनाना-समझाना आसान है; किंतु उसी तत्त्व को स्वयं को समझा पाना, अपने गले उतार पाना कठिन है। इस ग्रन्ध में दूसरों को उपदेश देने के लिए नहीं, अपितु व्यक्ति स्वयं को स्वयं समझ सके - इस दृष्टिकोण से आत्मतत्त्व का कथन किया गया है। इसी तथ्य को संस्कृत टीकाकार केशववर्या ने भी स्वीकार किया और कहा कि इस ग्रन्थ की टीका मैंने आत्मस्वरूप की उपलब्धि के लिए की है -
“टीका केशववर्यः कृता स्वरूपोपलब्धिमावाप्तुम् ।" इतना ही नहीं, उन्होंने घोषित किया है कि “मूलग्रन्धकर्ता भट्ट अकलंकदेव ने भी इस ग्रन्थ की रचना अपने भावों की संशुद्धि के लिए की है-"
__ "श्रीमदकलंकदेवः स्वस्य भावसंशुद्धेनिमित्तं ....." किन्तु 'कर्णाटकवृत्ति के कर्ता महासेन पंडितदेव ने इस ग्रन्थ की रचना 'भव्य जीव-समूह को सम्बोधित करने के लिए' मानी है -
___ "भव्यसार्थसम्बोधनार्थमागि ......." __ संस्कृत टीकाकार भी इससे असहमत नहीं हैं, वे इस ग्रन्थ को 'सकल भव्यजनोपकारी' (सकलभव्यजनोपकारिणं .... ) मानते हैं।
जैन-साहित्य में 'मोक्ष-प्राप्ति की मूलभूत पात्रता' को 'भव्यत्व' माना गया है। आचार्य पद्मनन्दि 'पद्मनन्दिपञ्चविंशतिः' में लिखते हैं कि "इस आत्मत्त्व की चनों जिसने प्रीतिपूर्वक प्रसन्नचित्त से सुनी है, वह भव्य' है''
"तत्प्रति प्रीतिचित्तेन, येन वार्ताऽपि हि श्रुता ।
निश्चितं स भवेद् भव्यो, भावि-निर्वाणभाजिनम् ।।" (423) इस अभिप्राय के अनुसार इस ग्रन्थ का वर्ण्य-विषय निश्चित रूप से भव्य जीवों के लिए उपयोगी है।
इस ग्रन्थ के वर्ण्य-विषय को दो वर्गों में विभाजित कर समझा जा सकता है
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