Book Title: Swaroopsambhodhan Panchvinshati
Author(s): Bhattalankardev, Sudip Jain
Publisher: Sudip Jain

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Page 51
________________ है। तथा 'केशवराज' ने कन्नड़ ग्रन्थों की रचना की है- इनकी रचनाओं का स्पष्ट विवरण मिलता है, और उनमें स्वरूपसम्बोधनपञ्चविंशतिः' की टीका का कोई उल्लेख नहीं है; वैसे भी इन्होंने स्वतन्त्र ग्रन्थ ही लिखे हैं, टीकाग्रन्थ नहीं। 'केशवसेनसूरि या ब्रहमकृष्ण' मूलत: अच्छे कवि थे और उन्होंने कथाप्रधान काव्यग्रन्थों की ही रचना की है, सैद्धान्तिक या टीकाग्रन्थ उन्होंने नहीं लिखे। अत: ये तीनों प्रस्तुत 'स्वरूपसम्बोधनपञ्चविंशति' के टीकाकार केशववर्य' या 'केशवपण' नहीं हो सकते। इनके नामों का भी अधिक साम्य नहीं है। एकमात्र 'केशववर्णी' ही ऐसे व्यक्तित्व है, जो मूलत: टीकाकार हैं; क्योंकि इन्होंने सारे टीकाग्रन्थ ही लिखे हैं। तथा ये सिद्धान्तवेत्ता भी थे और अध्यात्मवेत्ता भी; क्योंकि इन्होंने 'गोम्मटसार' जैसे सिद्धान्तग्रन्थ की टीका की और समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय जैसे अध्यात्मग्रन्थों की भी टीकायें की हैं। इनका नाम भी केशववर्य' या केशवण्ण' से अधिक साम्प रखता है। जहाँ तक इनकी रचनाओं में 'स्वरूपसम्बोधनपञ्चविंशति' की टीका का कोई उल्लेख न मिलने का प्रश्न है, तो ऐसी ही स्थिति 'अमृताशीति' के टीकाकार बालचन्द्र अध्यात्मी के साथ भी मुझे पेश आयी थी। उनकी समयसार आदि ग्रन्थों की टीकाओं का विवरण मिलता था, किन्तु 'अमृताशीति' की टीका की कोई सूचना नहीं थी। फिर भी अमृताशीति के टीकाकार ने अपने गुरु आदि को जो परिचय दिया था, उससे उनके निर्धारण में समस्या नहीं आयी थी; जैसे कि 'कर्णाटकवृत्ति' के रचयिता महासेन पण्डितदेव के बारे में अधिक स्पष्टता रही है। अत: पर्याप्त साम्य होते हुए भी गुरुपरम्परा या अन्य कोई ऐतिहासिक उल्लेख नहीं होने से स्वरूपसम्बोधनपञ्चविंशति: के प्रस्तुत संस्कृत टीकाकार केशववर्य' मा केशवण्ण' पूर्वोक्त केशववर्णी' ही थेयह बात बहुत अधिक दृढ़तापूर्वक तो नहीं कही जा सकती है; किन्तु उक्त समानताओं के आधार पर यह अनुमान अवश्य किया जा सकता है कि केशववर्णी ही 'केशवण, या केशववर्य' हो सकते हैं। इस बारे में मैंने दशाधिक ख्यातिप्राप्त सम्पादक विद्वानों से विचार-विमर्श किया एवं तथ्यों की जानकारी दी, तो उन्होंने मेरी अवधारणा (कि केशववर्णी ही केशववर्य या केशवण्ण है) से पूर्ण सहमति व्यक्त की है। इसप्रकार यद्यपि इस बात को मेरा अन्त:करण भी गवाही दे रहा है तथा विद्वानों ने भी इसकी पुष्टि कर दी है, तथापि पूर्ण स्पष्ट प्रमाण के अभाव में मैं अत्यन्त दृढ़तापूर्वक विज्ञजनों के सामने इस अवधारणा को प्रस्तुत नहीं कर पा रहा हूँ। हो सकता है कि समय इसका xxviii

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