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समाधान करे।
अन्य टीकायें - डा० ए० एन० उपाध्ये ने अपने शोध आलेख में लिखा है कि 'स्वरूप-सम्बोधन पर केशवाचार्य और शुभचन्द्र ने दृत्तियाँ लिखीं हैं।' इनमें से केशवाचार्य तो संभवत: उक्त संस्कृत टीकाकार केशवर्ण्य या केशवण्ण ही प्रतीत होते हैं तथा शुभचन्द्रकृत वृत्ति का अथक प्रयास के बाद भी पता नहीं चल सका है। यद्यपि डॉ० ए०एन० उपाध्ये सदृश विद्वान् निराधार कोई उल्लेख नहीं करते थे, किन्तु कदाचित् वे.वह आधार अपने लेख में स्पष्ट कर देते, तो इस बारे में दिशाहीन नहीं भटकना पड़ता। एक अन्य टीका का उल्लेख 'आरा प्रति' की प्रशस्ति में भी मिलता है -
"अकरोदार्हितो ब्रह्मसूरिपडितसद्विजः ।
स्वरूपसम्बोधनात्यस्य टीका कर्णाटभाषया ।।" अर्थात् आर्हत मतानुयायी ब्रहमसूरि पंडित नामक ब्राह्मण विद्वान् ने स्वरूप सम्बोधन' नामक ग्रन्थ की कन्नड़ भाषा में टीका की थी।
यद्यपि 'आस प्रति' इसी टीका प्रति के आधार पर लिखी गयी है. किन्त लिपिकार ने मूलगन्ध की ही प्रतिलिपि की है, टीका की नहीं। मात्र टीकाकार का प्रशस्ति-पद्य इस प्रति में लिपिकार ने दिया है, जिससे यह ज्ञात हो सका कि 'ब्रह्मसूरि पंडित' नामक विद्वान् ने भी इस ग्रन्थ पर कन्नड़ भाषा में टीका लिखी थी: जो आज अनुपलब्ध हैं।
अस्तु, 'स्वरूपसम्बोधन-पञ्चविंशति' की प्रस्तुत दो ही टीकायें प्राप्त हो सकी. जो कि इस संस्करण में प्रकाशित की जा रहीं हैं। उल्लिखित या अनुल्लिखित किसी अन्य टीका के बारे में विज्ञ पाठकगण यदि कोई स्पष्ट सूचना दे सके, तो उसका स्वामत रहेगा।
उपरोक्त संक्षिप्त विवरण के बाद मूलग्रन्थ के वर्ण्य-विषय एवं उसके वैशिष्ट्य का परिचय यहाँ अपेक्षित है।
वर्ण्य-विषय - ग्रन्ध का वर्ण्य-विषय मूलत: अध्यात्म है। गूलग्रन्धकार भट्ट अकलंकदेव इस बारे में लिखते हैं -
"इति स्वतत्त्वं परिभाव्य वाङ्मयं, य एतदाख्यत्ति श्रृणोति चादरात् । करोति तस्मै परमात्मसंपदं, स्वरूप-सम्बोधन-पञ्चविंशतिः ।। 26 11" अर्थात् इस प्रकार से इस ग्रन्थ में स्वतत्त्व (निज शुद्धात्मतत्त्व) की रचनात्मक
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