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मजे की बात यह भी है कि इन दोनों तथ्यों की जानकारी पं० जी को थी। संभवत: उन्होंने प्रचलित इतिहास के आधार पर यह बात कही होगी; किन्तु तथ्यों से इतिहास बनता है, इतिहास से तथ्य नहीं। जब नवोपलब्ध तथ्य इतिहास के नये पक्ष को प्रस्तुत कर रहे हैं, तब उन्हें नकारना निष्पक्ष विद्वत्ता कदापि नहीं हो सकती। इसे मात्र पूर्वाग्रह ही कहा जा सकता है।
अस्तु, अन्य विशेष प्रमाणों के अभाव में कर्णाटक वृत्तिकार महासेनदेव-विषयक चर्चा को यहीं विराम देते हुए संस्कृत टीका एवं उसके टीकाकार के विषय में विचार करते हैं।
संस्कृत टीका एवं उसके रचयिता:- इस टीका का नाम टीकाकार ने ‘स्वरूपसम्बोधनवृत्ति' रखा है। यह भी 'कर्णाटकवृत्ति' के समान ही पदव्याख्या शैली की टीका है। इसमें अकलंकदेव की आत्मभावना को उभारा गया है एवं न्यायवेत्तृत्व को प्रायः गौण कर दिया है। इसी कारण से टीका में अध्यात्म-दृष्टि से कई विवेचन 'कर्णाटकवृत्ति' की अपेक्षा प्रभावी एवं विशिष्ट हैं। कुछ बानगियाँ दृष्टव्य हैं
(प्रथम पद्य की उत्थानिका में) "श्रीमदकलंकदेव: स्वस्य भावसंशुद्धेनिमित्तं सकल भव्यजनोपकारिणं..... (द्वितीय पद्य की टीका में) ग्राह्यः = शानेन ज्ञातव्यः । (तृतीय पद्य की टीका में) ज्ञानदर्शनत: = असाधारणज्ञान-दर्शनगुणे: भेदात्मकः | (पद्य 11 में) भेदकरणं व्यवहारः, स एव निश्चयस्य कारणत्वात् (पद्य 16 में) श्रद्धालुः । (पद्य 17 में) तेन स्वास्थ्येन वस्तुस्वरूपज्ञानं स्यात्, तेन वस्तुस्वरूपशानेन शुद्धात्मभावना लभ्यते । (पद्य 18 में) तत्त्वचिन्तापरो भव - आत्मस्वरूप भावनातत्परो भव । (पद्य 19 में) संसार-तन्निबन्धनशरीरादिबाह्यवस्तुषुः उपेये - उपेयस्वरूपे स्वस्मिन् स्वस्वरूपे। (पद्य 21 में) स: = स एव। (पद्य 26 में) स्वसंवेद्यात्मानं निग्रंथाभिप्रायेण निश्चित्य निस्संग: सन् भाविते सति परमात्मसंपत्ति: संभवति । (टीकाकार की प्रशास्ति में) टीका केशववर्यैः कृता स्वरूपोपलब्धिमावाप्तुम् । – इत्यादि
इसके अतिरिक्त टीका में अनेक स्थलों पर व्याकरणिक दृष्टि से भी समासविग्रह आदि दिखाये गये हैं। यथा - ज्ञानमेवमूर्तिर्वस्पासौ, तं ज्ञानमूर्तिमः परमश्चासावात्मा च परमात्मा (दोनों पद्य 1)। आदिश्चान्तश्चाद्यन्तौ, न विद्यते आद्यन्तौ यस्यासावनाद्यन्त; (पद्य 2 । सर्वं गतं ज्ञातं येनासौ सर्वगतः (पद्य 5)।
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