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से नयसेन ने अत्यन्त आदर के साथ अपने शिक्षा-दीक्षा गुरू आचार्य नरेन्द्रसूरि का स्मरण किया है। मूलगुंद के शिलालेख (सन् 1053 ई० ) के अनुसार 'आचार्य नरेन्द्रसेन के शिष्य नयसेन सभी व्याकरण-ग्रन्थों के प्रगल्भ ज्ञाता थे।' आचार्य नयसेन की दो रचनायें उपलब्ध हैं (1) कर्णाट (कन्नड़) भाषा का व्याकरण और (2) धर्मामृत । इन दोनों ग्रन्थों में प्रदर्शित इनके प्रकाण्ड पाण्डित्य के आधार पर परवर्ती कवियों ने इनकी गणना कन्नड़ साहित्य के आकाश के देदीप्यमान नक्षत्र' के रूप में की है तथा इन्हें 'सुकविनिकरपिकमाकन्द', 'सुकविजनमनः सरोजराजहंस' आदि विशेषणों से विभूषित किया है। 'धर्मामृत' की प्रशस्ति के अनुसार आचार्य नयसेन कर्णाटक प्रान्त के धारवाड़ जिले की गदग तहसील से 12 मील दक्षिण-पश्चिम में स्थित 'मूलगुन्द' नामक जगह के निवासी थे, जो कि एक तीर्थ के रूप में प्रसिद्ध है। यहीं के जैनमन्दिर में बैठकर उन्होंने 24 अधिकारयुक्त- कन्नड़ भाषामयी 'धर्मामृत' नामक ग्रन्थ की रचना की थी। इस ग्रन्थ का रचनाकाल उन्होंने शक संवत् 1034 (गिरि - शिखी - वायु मार्ग संख्य) बताया है। डॉ० नेमीचन्द्र उास्त्री ने इसका रचनाकाल 1121 ई० माना है।'
इन्हीं नयसेन के शिष्य महासेन हुए, जिनकी दो कृतियाँ विद्वानों ने मानी हैं(1) स्वरूपसम्बोधन टीका एवं (2) प्रमाणनिर्णय । इनमें से प्रमाणनिर्णय' का उल्लेखमात्र प्राप्त होता है। संभव है यह ग्रन्थ भी किसी ग्रन्थभण्डार में हो, किन्तु आज तक इसकी कोई सूचना उपलब्ध नहीं है। डॉ० ए०एन० उपाध्ये ने भ्रमवश 'स्वरूपसम्बोधन' को महासेनदेव की पच्चीसश्लोकमयी रचना बताया था, किन्तु - अब इस तथ्य को किसी और प्रमाण की आवश्यकता नहीं है कि 'स्वरूपसम्बोधन पञ्चविंशति:' के कर्त्ता भट्ट अकलंकदेव हैं और यह छब्बीस पद्यों ( 25 श्लोक एवं 1 प्रशस्ति पद्म ) की संस्कृत भाषामयी रचना है तथा महासेनदेव ने इसकी 'कर्णाटक वृत्ति' नामक कन्नड़ टीका की रचना की है। महासेनदेव का काल ईसा की बारहवीं शताब्दी के मध्य माना जाता है। चूंकि इनके गुरू आचार्य नमसेन का काल सन् 1121 ई० तक माना गया है, अत ये इनसे पूर्ववर्ती तो हो नहीं सकते । तथा नियमसार के टीकाकार आचार्य पद्मप्रभमलधारिदेव ने नियमसार टीका में महासेन पण्डितदेव का अत्यन्त आदरपूर्वक स्मरण किया है। तथा पद्मप्रभमलधारिदेव का स्वर्गारोहण 1185 ई० में हुआ था, अतः महासेनदेव निश्चितरूप से इनके पूर्ववर्ती हुए। इन दोनों कालावधियों के मध्य ही महासेन पण्डितदेव की उपस्थिति संभव होने से इन्हें ईसा की बारहवीं शताब्दी के मध्यकाल
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