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से मंगलाचरण (श्रिय:पतिः केवलबोधलोचनं.....) किया है, जो कि संस्कृत भाषा में निबद्ध है। मंगलाचरण में ही तृतीय चरण में करोमि कर्णाटगिरा प्रकाशन कहकर टीका की भाषा ‘कन्नड़' होने की सूचना दी है तथा मंगलाचरण के चतुर्थचरण में ग्रन्थ का नामकरण 'स्वरूप-सम्बोधन-पंचविंशति:' बताया है। तदुपरान्त कन्नड़ प्राक्कथन में उन्होंने तीन सूचनायें दी हैं - (1) आत्म-परिचय के रूप में अपना एवं अपने गुरू का नामोल्लेख सर्वप्रथम किया है - 'श्रीमन्नयसेनपण्डितदेव-शिष्यरप्प श्रीमन्महासेनदेवरु... अर्थात् श्रीमान् नयसेन पण्डितदेव के शिष्य श्री महासेनदेव (ने यह कन्नड़ टीका की है)। (2) उद्देश्य-भव्य जीवों को संबोधित करने/समझाने के लिए यह कन्नड़ टीका की है-'भव्यसार्थ-सम्बोधनार्थमागि' । (3) ग्रन्थ के नामकरण का पुन: उल्लेख किया- ‘स्वरूप-सम्बोधन-पञ्चविंशति: एंब ग्रंथम... ।
तथापि यह प्राक्कथन ग्रन्थकर्ता के बारे में किंचित् भ्रमात्मक स्थिति उत्पन्न कर देता है। क्योंकि इसमें महासेनदेव ग्रन्थकर्ता प्रतीत होते हैं, किन्तु टीका की प्रशस्ति में उन्होंने अकलंक को मूलग्रन्थकर्ता तथा अपने को 'कर्णाटकवृत्ति' नामक इस टीका का कर्त्ता स्पष्ट रूप से घोषित कर दिया है। मंगलाचरण में भी उन्होंने 'कर्णाटगिरा प्रकाशन' कहकर कन्नडभाषायी भाग को ही अपना कृतित्व बताया है, जबकि मूलग्रन्थ संस्कृत में होने से उसके महासेनदेव-कृतित्व का स्वत: निषेध हो जाता है। ___ इस कन्नड़ टीका में ग्रन्थ के मूलपाठ अधिक वैज्ञानिकता के साथ उपलब्ध हुए हैं, जबकि प्रकाश्य संस्कृत टीका में जो पाठभेद हैं, उनमें अर्थ की संगति उतनी वैज्ञानिकता लिए हुए नहीं है। -(देखें सम्पादकीय में पाठभेदों का चार्ट)। ___ टीकाकार का परिचय:- टीकाकार ने प्रस्तुत कर्णाटकवृत्ति' नामक टीका में अपना नाम 'महासेन पण्डितदेव' तथा अपने गुरु का नाम 'नयसेन पण्डितदेव' बताया है। इसके अतिरिक्त अपने बारे में अन्य कोई जानकारी उन्होंने इस टीका में नहीं दी है। इस आधार पर जैन इतिहास का अवलोकन करने पर ज्ञात होता है कि इनके गुरू नयसेन पण्डितदेव मूलसंघस्थ सेनान्वय-चन्द्रकवाट अन्वय' के विद्वान् विद्यचक्रवर्ती नरेन्द्रसूरि के शिष्य थे। यह नरेन्द्रसूरि या नरेन्द्रसेन आचार्य मल्लिषेण के गुरू आचार्य जिनसेन के सधर्मा' थे। आचार्य नरेन्द्रसूरि ने नयसेन को पढ़ा-लिखाकर अच्छा विद्वान् बनाया था, इसी कारण
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