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उल्लेख आया है; कुल सात पद्यों (पद्य क. 3, 5, 6, 8, 9, 13 एवं 25) में इनका खण्डन है, जबकि चार्वाक (पद्य क्र. 2), वैशेषिक (पद्य क्र. 4) ब्रह्माद्वैतवादी (पद्य क्र. 6, 8), सांख्य एवं मीमांसक (पद्य क्र. 9 की टीका में) का अपेक्षाकृत कम उल्लेख हुआ है । यह स्वाभाविक भी है, क्योंकि मूलग्रन्थकर्ता भट्ट अकलंकदेव के समय बौद्धों का प्रचण्ड प्रभाव था तथा उनके निजी जीवन में भी बौद्धों के साथ कटु अनुभव (भाई की हत्या आदि) एवं घोर संघर्ष (सर्वाधिक वाद-विवाद बौद्धों से ही हुआ) रहा था; अत: बौद्धों की मान्यताओं का अधिक प्रखरता के साथ उनके द्वारा खण्डन किया जाना स्वाभाविक था। किन्तु मूलग्रन्थ में इन अन्य मतावलम्बियों का उल्लेख नहीं है, उसमें तो मात्र आत्मस्वरूप, उसकी प्राप्ति के उपाय एवं आत्मभावना की ही चर्चा है; तथापि टीकाकार महासेन पंडितदेव ने उत्थानिकाओं एवं टीका में इनके मतों का नामोल्लेख कर पाठकों को मतार्थ भी सूचित किया है। ____ यद्यपि टीका में मूलग्रंथ के प्रत्येक पद का अर्थ देने की ही शैली रखी गयी है, टीकाकार ने अपनी ओर से उसमें बहुत कम स्थलों पर कथन किया है। तथा जहाँ किया है, वह आधार का उल्लेख करते हुए किया है। जैसे कि मद्य क्र. 21वें (मोक्षेऽपि यस्य...) में 'मोक्षेऽपि' पद की टीका करते हुए टीकाकार महासेन पंडितदेव लिखते हैं- 'संसार-कारणाभावेषु स: स्वात्मलाभो मोक्षः' - एम्बुदार हेळल्पवप्प मोक्षदोळादोडे (अर्थ- 'संसार के कारणों का अभाव होने पर वह अपनी आत्मा का लाभ-प्राप्ति ही मोक्ष है - इस प्रकार के वचनों से स्पष्ट होने वाले मोक्ष में भी)-यहाँ पर मोक्ष की परिभाषा संसार-कारणाभावेषु स: स्वात्मलाभो मोक्षः' किसी प्रसिद्ध आचार्य के ग्रंथ से उद्धृत प्रतीत होती है। उसे ही यहाँ ग्रंथ या ग्रंथकर्सा के नामोल्लेख के बिना ज्यों का त्यों उद्धृत किया गया
प्रस्तुत कन्नड़ टीका की शैली सबसे प्रमुख आकर्षण का बिन्दु है। प्रत्येक पद के स्पष्टीकरण के लिए उन्होंने छोटे-छोटे प्रति प्रश्न उठाकर न केवल रोचकता का समावेश किया है, अपितु विषय को भी सरल बनाया है। आचार्य अमृतचन्द्रकृत 'आत्मख्याति' (समयसार की टीका) में आगत पद्यों के हिन्दी टीकाकार पांडे राजमल्ल (15-16वीं शता० ई०) की 'समयसारकलश टीका' में भी यह प्रतिप्रश्न-शैली बहुत प्रभावी सिद्ध हुई है। शैलीगत तुलना के लिए देखें
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