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'स्वरूपसम्बोधन- पञ्चविंशति:' की भाषा भट्ट अकलंकदेव के अन्य ग्रन्यौं की ही भांति परिशुद्ध एव अर्थगाम्भीर्ययुक्त संस्कृत भाषा है, तथा पद्यबद्ध रचना झेने पर भी पादपूर्ति जैसे प्रयोगों का नितान्त अभाव है। प्रत्येक पद अपनी जगह मणि की तरह जड़ा हुआ है, उसमें फेरबदल कदापि संभव नहीं है। न्यायनिष्णात व्यक्तित्व द्वारा रचित होने से प्रत्येक अक्षर एवं मात्रा भी अपने औचित्य एवं महत्त्व को मुक्तिपूर्वक सिद्ध करती है। न्यायगर्भित होते हुए भी अध्यात्मतत्त्व की प्रधानता के कारण शैली की दृष्टि से सरलता एवं सुबोधगम्यता अतीव स्वाभाविकरूप से इस ग्रन्थ में समापी हुई है। किन्तु कई मत-मतान्तर, जो कि अन्धकार के लिए प्रत्यक्षवत् थे, पाठकों के लिए कदाचित् अपरिचित होने से उन स्थलों पर ग्रन्थकर्ता के अभिप्राय के अनुसार विषय के स्पष्ट होने में बाधक हो सकते हैं; तथापि सम्पूर्ण कथन अस्तिपरक होने (Positive) होने से उनकी उपेक्षा करके भी विषय को मूतरूप में समझा जा सकता है। किन्तु ऐसा करने पर मात्र शब्दार्थ की सिद्धि होगी; नयार्थ, मतार्थ. आगमार्थ एवं भावार्थ सुस्पष्ट नहीं हो सकेंगे। अत: उनके उन अभिप्रायों को भी हमें मूलग्रन्थ पढ़ते समय समझना होगा, जो अकलंक जैसे तार्किकशिरोमगि की दृष्टि में रहे होंगे। साथ ही यह ध्यान रखना होगा कि यह ग्रन्थ अध्यात्मतत्त्वप्रधान है, न्यायदृष्टिप्रमुख नहीं। अत: न्यायविषयक प्रसंगों का ज्ञान विषय-वैशच (स्पष्टीकरण) के लिए तो आवश्यक होगा, किंतु तर्कप्रयोग या पूर्वपक्ष-उत्तरपक्ष शैली के लिए संभवत: बहुत प्रासंगिक नहीं रहेगा।
प्रतिपाद्य विषयों की विशेषता एवं सन्दर्भो के ज्ञान के पूर्व प्रस्तुत ग्रन्थ की व्यापक प्रभावोत्पादकता के विषय में तथ्यगत जानकारी संभवत: यहाँ प्रकरणसंगत
रहेगी।
अन्य ग्रन्थों में प्राप्त (स्वरूपसम्बोधनपञ्चविंशति:) के उद्धरण(1) आचार्य पद्मप्रभमलधारिदेवकृत नियमसार गाथा 159. शुद्धोपयोग अधिकार की टीका में (पृ० 320 पर) प्रस्तुत ग्रन्थ का निम्नलिखित पद्य उद्धृत किया है- “यथावद्वस्तुनिर्नीति: सम्यग्ज्ञानं प्रदीपवत् ।
तत्स्वार्थव्यवसायात्म कथञ्चित्प्रमितेर्पथक् ।। 12 ।। उन्होंने ही वहीं गाथा 162, शुद्धोपयोग अधिकार की टीका में (पृ० 329 पर) इसी ग्रन्थ एक अन्य पद्य उद्धृत किया है--
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