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ऐसा ही हुआ है। 'आरा' प्रति के प्रतिलिपिकार ने इसका आदि एवं अन्त का पद्य गथावत् रखा, किन्तु बीच में से निम्नलिखित एक पद्य छोड़ दिया
“तथाप्यतितृष्णावान्, हन्त मा भूस्त्वात्मनि ।
यावत्तृष्णाप्रभूतिस्ते, तावन्मोक्षं न यास्यसि ।। 20।।"
चूंकि उपलब्ध हस्तलिखित पाण्डुलिपियों में 'आरा' की प्रति सबसे बाद में लिखी गई है । यद्यपि उसमें रचनासंवत् का कोई उल्लेख या लिपिकार की पुष्पिका नहीं है, तथापि आधुनिक देवनागरी लिपि के अक्षरों का प्रयोग होने से एवं कागज पर लिखी गयी इस प्रति की अवस्था को देखते हुए यह प्रति एक सौ वर्ष से अधिक प्राचीन प्रतीत नहीं होती है। चूंकि यह कागज पर लिखी गयी, सुवाच्य एवं सहज उपलब्ध होने से आज के विद्वानों ने संभवत: इसी प्रति को आधार बनाया एवं इसी के आधार पर इस ग्रन्थ के मूलपाठ का अपनी समझ के अनुसार अनुवाद कर प्रकाशित कर दिया। अत: सभी प्रकाशित प्रतियों में उपर्युक्त पद्य छूटा हुआ है, तथा पद्यों की संख्या का परिसीमन पंचविंशति' के अनुसार पच्चीस बना हुआ है। जब कि मूल ग्रन्थ में छब्बीस पद्य हैं. तथा छब्बीसवाँ पद्य प्रशस्तिरूप है। देखें- “इति स्वतत्त्वं परिभाव्य वाङ्मयम्, य एतवाख्याति श्रुणोति चादरात् ।
करोति तस्मै परमात्मसम्पदम्, स्वरूप-सम्बोधन-पञ्चविंशतिः ।।" ग्रन्थकार ने इसे प्रशस्तिपद्यरूप में संकेतित करने के लिए ही इसे उपेन्द्रवज्रा' छन्द में लिखा है, जबकि ग्रन्थ के शेष सभी पद्य 'अनुष्टुप् छन्द में निबद्ध है।
चूंकि आधुनिक सम्पादकों में डॉ० ए०एन० उपाध्ये एवं डॉ० हीरालाल जैन आदि विद्वानों जैसी कर्तव्यनिष्ठा, समर्पण भावना एवं सम्पादन के मूलभूत सिद्धान्तों के अपेक्षित ज्ञान के साथ-साथ उनका अनुपालन करने का धैर्य नहीं रह गया है। अत: कम से कम समय में अधिक से अधिक ग्रन्थ अपने नाम से छप जायें'-इस प्रवृत्ति के कारण ग्रन्थों का मूलस्वरूप विकृत होने लगा है। इसका प्रमाण है कि 'आरा प्रति' में जितनी त्रुटियाँ थीं, आज की प्रकाशित प्रतियों में प्रत्येक प्रति में कुछ न कुछ त्रुटियाँ बढ़ी ही हैं।
अस्तु, इस ग्रन्थ का नाम 'पञ्चविंशति' (पच्चीस पद्योंवाला ग्रन्थ) पदान्त है तथा यह मूल पच्चीस पद्यों एवं एक प्रशस्तिपद्य को मिलाकर कुल छब्बीस पद्यों का ग्रन्थ है। 1. आरा ग्रन्थभण्डार के प्रबन्धकों का व्यवहार अत्यन्त सहयोगीवृत्ति का है।
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